नमस्कार! ख़ुशामदीद, आदाब! सत श्रीअकाल !
मैं आपका किस्सागो दोस्त – माणिक मुल्ला और आप आ गए हैं मेरे यूट्यूब चैनल पर कहानी सुनने !
तो अगर आपने क़िस्सा सुनना शुरू कर दिया है , तो कहानी आगे चलेगी !
और अगर आप मेरे चैनल पर पहली बार आ रहे हैं तो ज़रा सब्सक्राइब करना तो बनता है ना !
जैसा कि हमने पिछले हिस्से में अर्ज़ किया था – कि राजा अब उस सुखी पति से मिलने को व्याकुल और मंत्री परेशान क्योंकि वो बोल रहा था -झूठ !
ये तो आप भी जानते हैं – कि इस दुनिया में ‘सुखी पति’ जैसा कोई जीव होता ही नहीं !
कोई व्यक्ति ‘दुखी’ या ‘सुखी’ हो सकता है !
पति या पत्नी भी हो सकता है – पर ‘सुखी पति’ या ‘सुखी पत्नी’ भी हो – ये भई मुझे तो आज तक कोई दिखा नहीं !
तो अगर आप ये शब्द पढ़ रहे हैं और आप स्वयं एक ‘सुखी पति’या ‘सुखी पत्नी’ होने का दावा रखते हैं
या किसी ऐसे इंसान को जानते हैं … तो कृपया ! प्लीज़ ! कॉमेंट बॉक्स में मुझसे फ़ौरन संपर्क करें !
पर राजा तो राजा ही होता है और मंत्री तो मंत्री !
और मंत्री तो बीरबल था नहीं !
और न राजा अक़बर .. जो नौ रत्नों की क़दर करना जानता !
तो मंत्री ने राजा को जो क़िस्सा सुनाया वही क़िस्सा अब मैं आपको सुना देता हूँ!
तो जनाब बात उस दिन की है जिस दिन पानी बरसा था !
पानी बरसा था मतलब मुम्बई में पानी बरसा था !
और वह दिन था 26 जुलाई 2005 !
जिसे मुंबई के इतिहास में एक काले दिन के रूप में पूरा शहर याद करेगा ।
वो सिर्फ़ बारिश का पानी नहीं था ! इतना पानी सिर्फ़ बरसने से इकट्ठा हो ही नहीं सकता है !
ऐसा बड़े बूढ़े बताते हैं !
वो जो किसी भी शहर में रहते हैं – लेकिन प्रकृति के साथ रहते हैं !
बड़े बूढ़े कहते हैं – उस दिन बादल फटा था !और कितनों की क़िस्मत फूटी थी!
वह ज्वार का समय था – समुद्र अपने उफान पर था!
ज़ाहिर है , ऐसे में अचानक आया – इतना पानी, तुरंत समुद्र में नहीं समा सकता था !
समंदर पर सरकार की हुकूमत नहीं चलती !
मुझे याद है उस दिन वर्षा- प्रिय मैं – यानी आपका दोस्त माणिक मुल्ला , अपनी बालकनी में बैठा था और अपने कंप्यूटर पर कुछ कर रहा था ! बारिश के दिनों में माणिक अक्सर घर बैठे काम करने में लग जाता था, ताकि मुंबई की बरसात में बाहर जाने से बचा जा सके !
‘हमने सोचा था बरसात में बरसेगी शराब,
आयी बरसात, तो बरसात ने दिल तोड़ दिया !’
बेग़म अख़्तर की आवाज़ में यह गीत सुनना माणिक को बेहद पसंद था – ख़ासतौर पर जब बारिश हो रही हो!
तभी महेश का फ़ोन आया !
महेश दोस्त है ! माणिक के साथ कुछ प्रोजेक्ट पर काम भी कर रहे हैं !
भारत में अभी तक इंटरनेट का विकास इतना नहीं हुआ है और हम लंबे लंबे फ़ोन कॉल पर ही तकनीकी सहायता लिया और दिया करते थे!
माणिक के हार्ड डिस्क में कुछ प्रॉब्लम थी ,जिसके चलते पिछले ही हफ़्ते उसे महेश को दिया था !
आज अगर बारिश नहीं होती तो माणिक ज़रूर आज जाकर हार्ड डिस्क ले आता!
ऐसे में महेश का फ़ोन आया !
अभी कल शाम दोनों साथ ही थे !
और हम साथ साथ जहांगीर आर्ट गैलरी जा रहे थे !
वो शायद ‘सायन स्टेशन‘ रहा होगा – जब अचानक उसको पता चला , कि उसकी ‘डिजिटल डायरी’ – पॉम , जो उन दिनों नया नया ही आया था – शायद ऑटो में छूट गया है !
उसने मुझसे कहा था – ‘मैं जहांगीर जाना कैंसिल करता हूँ – और वापस जाता हूँ शायद वो ऑटो रिक्शा वाला मिल जाए !’
‘पाम’ एक डिजिटल डिवाइस है जिसे उसके एक मित्र ने पिछले हफ़्ते ही भेंट किया था – जो काफ़ी महँगा था !
महेश अपने इस खिलौने को लेकर बहुत उत्साहित था !
अभी तो उसने अपने इस नए खिलौने को पूरी तरह से एक्सप्लोर भी नहीं किया था !
वो मेरे साथ जा रहा था क्योंकि उसे दादर स्टेशन पर किसी को ‘पेन ड्राइव’ देना था -बाद में वह मेरे साथ जहांगीर आर्ट गैलरी जाने को तैयार हो गया था !
महेश जैसे मित्र अद्भुत होते हैं – उसके साथ चाय पीते हुए घंटों बात किया जा सकता था !
उसके क़िस्से होते थे !
कब किस दोस्त के साथ, समुद्र के किनारे, या किसी प्लैटफ़ॉर्म पर , या चाय की छोटी सी टपोरी पर बैठकर उसने किस विषय पर कितनी बातें कीं !
और इन बातों को पूरे सिलसिलेवार ढंग से – वो फिर से सुनाता था !
(इसमें उसका तकनीकी ज्ञान भी शामिल था )
माणिक मुल्ला की पहली वेबसाइट भी उसी ने बनायी थी !
पर वो कहानी फिर कभी !
तो हम उस दिन का क़िस्सा बयान कर रहे हैं –
वो दिन यानी 26 जुलाई 2005 !
दोपहर को फिर फ़ोन आया !
वो ज़माना लैंडलाइन का था – और तब हमारे पास जो फ़ोन था वह हैंड्सफ्री था, जिसे लेकर बालकनी में बैठा जा सकता था !
‘इधर कुर्ला में बारिश हो रही है , मेरी बेटी अभी तक घर नहीं आयी है -और मुझे चिंता हो रही है ! मैं उसे ढूंढने जाना चाहता हूँ , पर कोई जाने नहीं दे रहा है – मुझे जाना चाहिए ना ?’ – महेश ने पूछा था!
बेटी को लेने जाना पड़े तो कौन मना कर सकता है ?
माणिक ने ‘हाँ !’ कर दिया था ! और ‘हाँ !’ सुनकर वह ख़ुश भी हो गया था !
मुंबई में मुसीबतों के ऐसे दिन आते हैं – जब लोग बेबस हो जाते हैं ! और तब कहा जाता है कि फँस जाते हैं !
ऐसे में पूरे शहर की मानवीय संवेदना जाग जाती है ! और तब पता चलता है कि ये रोज़ , लंबी – लंबी ट्रेन यात्रा कर , अपने काम पर जाने वाले लाखों लोग , वक़्त पड़ने पर कैसे एक दूसरे के मदद के लिए खड़े हो जाते हैं ! अगर आप मुंबई में रहते हैं – तो आपके पास भी 26 जुलाई 2005 की कोई न कोई कहानी ज़रूर होगी ! उसके बाद महेश से माणिक की कोई बात नहीं हुई ! माणिक ने उसे फ़ोन करने की कोशिश की थी पर उसका फ़ोन लगा ही नहीं !
TV बता रहा है कि उस दिन 944 एम एम की रिकॉर्ड बारिश हुई थी ! जिससे निपटने की कोई तैयारी नहीं थी ! महेश जिस कुर्ला इलाक़े में रहता था वह मीठी नदी के किनारे बसा है ! और मीठी नदी का पानी , सड़कों पर होते हुए लोगों के घरों में घुस आया था!
>माणिक ने अख़बार में पढ़ा था –
अगले दिन यानी 27 जुलाई 2005 को माणिक ने ख़ुद जाकर हार्ड डिस्क लाने का निर्णय लिया था!
माणिक निकल पड़ा कुर्ला की ओर !
फ़ोन लाइनें तो कल से बंद थी मुंबई में बिना फ़ोन किए किसी के घर जाने का रिवाज़ नहीं है !
ख़ास तौर पर अगर उसके घर जाने में एक घंटा लगता हो!
पर आज माणिक निकल पड़ा , बिना फ़ोन किए !
कुर्ला की ओर जाने के लिए उसने बोरीवली से ट्रेन पकड़ी और सांताक्रूज स्टेशन पर उतरा !
महेश के यहाँ जाने के लिए वह हमेशा १२३नंबर की बस पकड़ता था !
(हालाँकि वहाँ ऑटो से भी जाया जा सकता था पर माणिक उसूलों के पक्के थे!)
जिन रास्तों पर जनसंचार के माध्यम से जाया जा सकता है, वहाँ टैक्सी ऑटो लेना वो देशद्रोह समझते थे !
बस स्टैंड स्टेशन के सामने ही है !
सांताक्रुज पूर्व के बस स्टैंड पर एक भी बस नहीं थी !
पूरा कंपाउंड ख़ाली था !
बस तो नहीं ही थी – पर यात्री भी नहीं थे !
माणिक सड़क पर आए और पैदल ही चल पड़े -कुर्ला की ओर!
ये आसान नहीं था -क्योंकि इसमें 1 घंटे से ज़्यादा का समय लग सकता था !
माणिक ने तब ये कल्पना नहीं की थी, कि उन्हें कुर्ला तक का रास्ता पैदल ही तय करना होगा !और उस दिन माणिक को उस वर्षा की भयावहता का अंदाज़ा लगा !
माणिक पुराने पत्रकार थे (पर तब तक ‘ सिटीज़न जर्नलिस्ट ‘ नामक शब्द नहीं चला था)
ऐसे में उनके अंदर का पत्रकार जाग गया था !
दोनों ओर रास्ते में जगह जगह पानी से आहत वाहन खड़े थे – बिगड़े हुए !
हालाँकि अब रास्ते पर पानी नहीं था , पर सड़क की हालत ख़राब थी और नालियों में बहने वाला कूड़ा करकट सड़क पर पसर गया था!
बिगड़े वाहन बेबसी में खड़े थे !
बेस्ट की बसें जगह जगह बंद पड़ी थी !
यानी अब तो पूरा रास्ता पैदल ही चलना होगा –
आपद काल में पत्रकार होने का अपना एक थ्रिल और एडवेंचर होता है!
उस दिन माणिक ने देखा था – शहर का खस्ताहाल !
घायल सड़कें, उजड़े – बिजली के टेलीफ़ोन के खंभे बता रहे थे – कि इस शहर को गहरी तीमारदारी की ज़रूरत है !
सड़क से महेश की कॉलोनी जाने वाला रास्ता कच्चा ही था और कीचड़ से भरा हुआ !
अपना जूता बचाते पैंट उठाए , माणिक किसी तरह बिल्डिंग तक पहुँच गए और बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ने लगे !
पहली मंज़िल के एक व्यक्ति ने माणिक को रोका!
‘आप तो महेश के दोस्त हैं ना ? हमने अक्सर आपको उनके यहाँ आते देखा है !’
तभी माणिक ने सोचा था -‘हम जब किसी के यहाँ आते जाते हैं तो कितनी आंखें हमको देखती रहती है और उसका रिकॉर्ड भी रखती हैं!’
‘एक मिनट आइए ना !’
उस पड़ोसी ने आग्रह किया और माणिक को रुकना पड़ा !
उसका घर भी उतना ही छोटा था जितना महेश का !
मुंबई में लाखों रुपये की क़ीमत वाले इन घरों को माणिक ने कभी घर नहीं समझता था !
8बाई 10 का एक कमरा – जिसे ड्रॉइंगरूम कहते हैं !
जिसमें स्थाई रूप से एक आलमारी होती है जिसे शोकेस कहा जाता है !
इसमें ऊपर की ओर क्रॉकरी सजी होती है कुछ खिलौने रखे होते हैं – और उसी में कहीं एक TV भी रखा होता है !
यह मिडिल क्लास के सौंदर्यबोध का मुंबई संस्करण है !
बिजली नहीं थी – सो ड्रॉइंगरूम में अंधेरा ही था !
घर की महिला पानी का गिलास ले आयी थी !
मुंबई का यही रिवाज़ है , कि जब आप किसी के घर जाए तो सबसे पहले पानी दिया जाता है !
इलाहाबाद के रहने वाले माणिक मुल्ला को यह बड़ा अजीब लगता था !
इलाहाबाद में कभी किसी अतिथि को ख़ाली पानी नहीं दिया जाता था !
वहाँ गुड की डली तो दी ही जाती थी !
पचीस साल से मुंबई में रहते हुए माणिक भी अब बम्बइया हो गए हैं !
उन्हें इस शहर से इश्क़ है – और इस शहर में रहने वालों से भी !
बाहर से नए नए आने वाले लोग, मुंबई वालों को धूर्त समझते हैं – जबकि ऐसा है नहीं !
मुंबई के लोग जितने मददगार है – उसका जवाब नहीं !
इसको साबित करने के लिए माणिक के पास कई कहानियाँ हैं !
पानी का गिलास हाथ में लेकर, माणिक ने एक घूंट भरा ! और पड़ोसी ने बात शुरू की!
‘महेश के दोस्त हैं ?’
हमने – ‘हाँ !’ बोला
‘अच्छा बोरीवली से आए ? पानी बरसने से बुरा हाल है – कल से लाइट नहीं है ! और फ़ोन भी बंद है !’-उसने बोला – ‘महेश से कब बात हुई थी आपकी?’
माणिक ने बताया – ‘कल लगभग इसी समय बात हुई थी – आने के पहले मैं फ़ोन ट्राई कर रहा था पर वह मिला ही नहीं!’
‘महेश तो मर गया !’ -उसने बम गिराया
माणिक को शॉक लगा !
सबसे पहली बात जो उसके ज़ेहन में आयी थी – वो थी हार्ड-डिस्क- और प्रोजेक्ट ,जो वे साथ करने वाले थे !
यही बताने के लिए पड़ोसी ने रोका था ! ताकि ऊपर जाने के बाद , उसके परिवार को यह ख़बर न सुनानी पड़े !
बोझिल मन से माणिक ऊपर गए – घर के दरवाज़े पर घंटी नहीं बजानी पड़ी ! कुछ लोग पहले से ही बैठे थे !
महेश की पत्नी माणिक से परिचित थी – उसने तुरंत हार्ड डिस्क माणिक के हवाले कर दी !
हार्ड डिस्क हाथ में पकड़े माणिक बैठ गए!
मौत की ख़बर हमें स्तब्ध कर देती है !
महेश उस उम्र का था , जिस उम्र में हमारे बच्चे हाई स्कूल इंटर पास करके आगे की पढ़ाई के बारे में सोच रहे होते हैं !
महेश अपने घर का अकेला कमाने वाला व्यक्ति था ! उसकी पत्नी को घर से बाहर आने – जाने की स्वतंत्रता भी नहीं थी !
माणिक को याद है , उसकी पत्नी सिर्फ़ चाय देने या खाना परोसने भर के लिए ही उसके सामने आयी थी !
बच्चे अभी पढ़ रहे थे और महेश कलाकार था – वह भी नौकरी नहीं करता था !
महेश की पत्नी का नाम मैंने कभी पूछा नहीं !
यहाँ हम उसे निशा कहकर बुला सकते हैं !
‘भाई साहब ! आप एक मदद करेंगे ? फ़ोन तो चल नहीं रहा है – आप प्लीज़ अपने दोस्तों को ये ख़बर दे देंगे ?अभी किसी को पता नहीं है !’
हार्ड डिस्क को प्लास्टिक की थैली में डाले माणिक सड़क पर आ गए और घर की ओर चल पड़े !
रास्ते में कोई पब्लिक फ़ोन नहीं चल रहा था !
अब उनकी ज़िम्मेदारी थी कि वह अपने दोस्तों को ये ख़बर दें!
पहले दोस्त को बताया तो वो चकराया – उसे तो भरोसा ही नहीं हुआ !
उसने कहा कि वो शाम को महेश के घर जाएगा और तभी विश्वास करेगा !
उस शाम भारी मन से माणिक घर आ गए !
शाम तक तमाम मित्रों को ख़बर दी गई – सबने तय किया – ‘अगले दिन साथ महेश के घर जाते हैं!’
**
इस बात को एक सप्ताह बीत गए !
धूप निकल आयी ! सड़क पर ट्रैफ़िक चलने लगा ट्रेन! चलने लगी ! लोग-बाग ऑफ़िस जाने लगे !
बाज़ार का कारोबार चलने लगा ! देखने में सब कुछ नॉर्मल था !
जैसे रोज़मर्रा की ज़िंदगी !
बस महेश नहीं रहा !
ये कोई नई बात नहीं ! मरना जीना तो लगा रहता है!
जो पैदा होता है -वह तो एक दिन मरेगा ही – किसी के जीने मरने से कोई फ़र्क नहीं पड़ता , जीवन चलता रहता है !
जीवन की आपाधापी में कभी कभी ऐसी घटना हो जाती है – और हमें कुछ देर रुककर सोचने का मौक़ा देती है – कि यह सब जो हो रहा है –
वो क्या है ? क्यों है ? और कैसे हो रहा है ?
पर यह ज़्यादा समय तक रहता नहीं !
हमारे पूर्वजों ने इसके लिए एक शब्द भी बनाया है ‘श्मशान वैराग्य!’
श्मशान वैराग- यानी कुछ समय का टेम्पररी बैराग !
जो क़ब्रिस्तान या मरघट जाने पर कुछ देर के लिए होता है !
महेश को शरीर छोड़े लगभग एक सप्ताह हो गए हैं !
हम दोस्तों का एक छोटा सा ग्रुप – अक्सर उनके घर जाता है और उस परिवार की मदद की कोशिश कर रहा है !एक इंसान की मृत्यु के बाद , उसके आस पास के इंसानों की ज़िंदगी कितनी बदल सकती है !
इसे ऊपर से नहीं जाना जा सकता !
महेश के शरीर छोड़ने से – क्या माणिक मुल्ला कि अपनी ज़िंदगी नहीं बदल गई?
महेश की पत्नी निशा के भाई ऑस्ट्रेलिया से सपरिवार आए थे !
महेश के घर में इन दिनों अच्छी ख़ासी भीड़ सी थी !
अपने दोस्तों के साथ माणिक भी गये थे !
आज महेश का ख़ज़ाना खोला गया था ! ख़ज़ाना – यानी उसकी संगीत का कलेक्शन , किताबें , कैमरे का डिब्बा !
निशा बताती है – ‘उन्होंने अपनी लाइफ़ में कुछ भी नहीं फेंका ! ‘
पहला कैमरा .. दूसरा कैमरा …तीसरा कैमरा .. छोटी से छोटी चीज़ें हैं !
उसके घर में पड़ी है वो कैमरे का पहला फ़िल्टर भी – जो सालों से काम का नहीं रहा !
वह सारी चीज़ें सहेज कर रखें था !
अपने दोस्तों से बचाए – छिपाए !
वह सब यहाँ सामने बिखरा पड़ा है !
हमने तय किया है – कि सारे सामानों की लिस्ट बनायी जाएगी !
कैमरे इत्यादि क़ीमती वस्तुओं को बेंच दिया जाएगा या बाँट दिया जाएगा !
संगीत का ख़ज़ाना माणिक को दे दिया गया था !
निशा ने कहा था – ‘इसे आप ही ले जाएगा भाई साहब !’
वो सारे CD जो महेश ने कभी दिखाये भी नहीं – वो माणिक के हिस्से आ गये थे !
**
मुंबई के जीवन में सब अपने अपने में भागते रहते हैं !
शहर का दायरा इतना बड़ा है कि अपने प्रिय मित्रों से साल में एक -दो बार मुलाक़ात हो जाए तो शुकर है !
अगर आप रोज़मर्रा के स्तर पर काम से जुड़े नहीं हैं -तो बस कभी कभी फ़ोन पर बात हो गई तो हो गई !
एक दिन निशा का फ़ोन आया था – ‘भाईसाहब आप शनिवार को आ सकते हैं कुछ ज़रूरी राय लेनी और हाँ अकेले ही आएँ तो बेहतर होगा !’
दुनियादारी के तौर पर कई बातें ऐसी होती है जिसे हम अपने बेहद क़रीबी लोगों से भी शेयर नहीं कर पाते !
पिछली मुलाक़ात के समय निशा के परिवार वालों ने तय किया था -कि अब मुंबई में रहने का क्या फ़ायदा?
शायद उसी मामले में कुछ बात हो – शनिवार 3 बजे के बाद- हाफ़ डे के समय माणिक ने निशा से मिलने का तय किया था !
शनिवार का दिन !
दोपहर के 3 बजे – सांताक्रूज स्टेशन से बस पर बैठकर माणिक चल पड़े कुर्ला !
सड़क पर यातायात सामान्य था !आज फिर माणिक को उस दिन की याद आयी थी -जब कुछ भी ठीक नहीं था !
उन्हीं रास्तों से गुज़रते हुए -माणिक निशा की बिल्डिंग की सीढ़ियां चढ़ते हुए उसके फ़्लैट की घंटी बजायी!
दरवाज़ा महेश की लड़की ने खोला था !
‘नमस्ते अंकल ! आइए , हम लोग आपका ही इंतज़ार कर रहे थे !’
जूते उतार कर माणिक मुल्ला कमरे में दाख़िल हुए !
ड्रॉइंगरूम कहा जाने वाला यह छोटा सा कमरा कभी महेश का स्टूडियो हुआ करता था !
वह कमरा लगभग ख़ाली है – फ़र्नीचर तो पहले भी नहीं था !
हम चटाई बिछाकर बैठे थे !
बॉंई और एक शो केस था – जिसमें TV रखा होता है !
महेश का कंप्यूटर टेबल था – पर वो महेश का नहीं था !
घर वैसा ही था बस महेश नाम का आदमी नहीं था –
वही जो कलाकार था ! पति था ! पिता था ! वह नहीं था !
महेश के न होने से इस धरती पर रहने वाले हर इंसान के जीवन में कुछ तो फ़र्क़ पड़ा है ! किसी भी इन्सान के मरने से हर इन्सान के जीवन पर फ़र्क़ पड़ता होगा!
क्या जीना मरना व्यक्तिगत घटना है ?
माणिक को इसमें संदेह है !
वहाँ बैठकर माणिक को साफ़ साफ़ दिखाई पड़ने लगा था – वे सारे लोग जिनके लिए वह डिज़ाइन बनाता था – वो लोग अपने डिज़ाइनर तलाश चुके होंगे !
निशा कमरे में आयी !
उसने अपनी लड़की – जिसे हम राधिका कहेंगे – को चाय बनाने को कह दिया था !
माणिक को चाय प्रिय हैं !
महेश भी टी-टोटलर था !
चाय पर चर्चा ही -जीवन का रस है – जो हमारे जीवन में बहता रहता है!
‘कभी मैं बीमार हुआ तो डॉक्टर को चाय ही चढ़ानी पड़ेगी- ब्लड नहीं!’
महेश कहता था !
26 जुलाई 2005 को महेश की लाश बिजली के खम्भे में फँसी पाई गई थी !
‘भाई साहब हम लोगों ने तय किया है – कि हम पंजाब चले जाएंगे – यह फ़्लैट बेच देंगे – आपको तो पता है मनोज और राधिका अभी पढ़ रहे हैं !’
‘हम तो यहाँ मुंबई का कुछ जानते नहीं – अकेले बच्चों को कैसे पालेंगे – हमारे मायके वाले भी यही चाहते हैं – फ़्लैट बेंच के जो पैसा आएगा हम उसी से पंजाब में एक घर ख़रीद लेंगे – मायके का अपना ही स्कूल है -मैं वहाँ पढ़ा सकूंगी – आपको इसलिए बुलाया है -ताकि खुलकर राय ले सकूँ ! आप तो महेश को जानते भी हैं और शायद नहीं भी जानते हों!’ माणिक को यह सुनकर थोड़ा अटपटा लगा था !
महेश को वो लगभग 20 वर्षों से जानते थे -दोस्ती गहरी थी !
लेकिन अगर कोई पत्नी कहे कि आप अपने दोस्त को नहीं जानते थे तो इसे मानना ही होगा!
उस दिन निशा ने बताया – कि शादी के बाद मुंबई आने पर उसके ऊपर कठिन प्रतिबंध था !
घर से बाहर निकलना बिलकुल मना था !
जबकि वो पढ़ी लिखी थी !
महेश उसे दुनिया से बचा छिपाकर घर में ही रखता था!
यहाँ तक की सब्ज़ी लाने के लिए भी वह ख़ुद ही जाते थे – ऐसे में निशा कैसे जी पाएगी ?
इसके बाद निशा ने जो कहा था – वह सुनकर माणिक के पैर के नीचे से ज़मीन ही खिसक गई !
क्या कोई पत्नी अपने पति के विषय में ऐसा सोच सकती है ?
अविवाहित माणिक के लिए यह बिलकुल नई दुनिया थी –
निशा ने बताया था कि –
महेश के जाने के बाद उसे मुक्ति का एहसास हुआ था !
अब यह उसका दूसरा नया जन्म होगा !
महेश के जाने के बाद निशा सुखी हो गई – यह सोचना भी सामाजिक दृष्टि में तक़लीफ़ दे लग सकता है !
महेश एक सुखी व्यक्ति था –
पैसे वह इतना कमा लेता था के परिवार को पाल सकें !
लेकिन क्या आप अपने परिवार को ऐसा जीवन देना चाहते हैं कि –
आपकी मृत्यु के बाद लोग जश्न मनाएँ !
माणिक को लगा था अगर उसने कभी शादी की तो वह पत्नी को ऐसे रखेगा कि उसकी मृत्यु के बाद उसको थोड़ी तक़लीफ हो. कम से कम वह उसके साथ को ज़रूर मिस करे !
महेश सुखी था और पति भी!
पर क्या महेश सुखी पति था!
क्या निशा सुखी पत्नी थीं ?
मंत्री सोच रहा था – ‘क्या राजा को महेश से मिलवाना चाहिए?’
– रवि शेखर
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