दिवाली की छुट्टियों का मौसम था… मेरा शहर सुबह-सुबह जाग जाता, और फिर.. दिन भर अलसाया सा रहता… मैं भी अपनी बालकोनी पे कोई किताब खोले… बैठा कम, सोता ज़्यादा रहता … करता भी तो क्या..तब छानने के लिए मन भर यादें नहीं थी… और बुनने के लिए सपने भी नहीं थे…
न तो तब इल्म था, न थी हिम्मत मोहब्बत की, हम तो गज़लें सुनकर ही मोहब्बत कर लिया करते थे. मैं और मेरा दोस्त विशाल, एक ही वॉकमैन के दो एअर पीस अपनी एक-एक कान में लगाए… गज़लो में अपनी मोहब्बत, अपना ग़म तलाशते रहते… सच कहता हूँ, उन दिनों इस बात का हमें ज़रा भी भान नहीं था, कम से कम मुझे तो बिल्कुल नहीं, की पास की ही किसी छत से कोई हम पे नज़र रख रहा है… और हमारी ही तरह हमारे एहसासों को जीने की कोशिश कर रहा है… आज ये बात दिलचस्प लगती है… पर उन दिनों … पता नहीं… अगर ये मालूम होता… तो क्या पता हम ऐसे चैन से ये कर भी पाते …
बालकोनी के पास बिजली के तारों से उलझी पतंगें दिन भर मुझे घूरती, मुंह चिढ़ाती..एक दिन ऊब कर…मैने बाँस की एक करची उठाई और उनमें से एक को मुक्त करा दिया… वो हवा में लहराने लगी… मैं उसे नीचे जाते देख रहा था कि अचानक… देखा एक साइकल रिक्शे में एक बड़ी ही खूबसूरत सी लड़की चली आ रही है… मखनी रंग के सूट पे ऑरेंज कलर का दुपट्टा लहराती… दिल तो जैसे थम गया.. कहीं ये पतंग उसे न लग जाए… पतंग उसकी ओर बढ़ रही थी… वो शायद कहीं और खोई थी…. दिल और भी तेज़ी से धड़कने लगा कि पतंग कहीं उसकी आँख-वाँख में लग गयी, या माँज़े से कहीं उसे खराशें आ गयीं तो पापा से धुलाई तो निश्चित है, लेकिन पता नहीं क्या आकर्षण था उस लड़की में… पतंग उसी की ओर बढ़ी जा रही थी. मन किया चिल्ला दूं, पर चिल्लाऊं क्या… नाम भी तो नहीं मालूम… चिल्ला दूं , ” ए लड़की बच के “. नहीं बड़ा ही अभद्र लगेगा. अब तक पतंग उसके करीब जा चुकी थी… बहुत करीब…. पतंग उसके चेहरे से लिपटने ही वाली थी… लेकिन अचानक उसने हाथ लहराया और वो पतंग उसके हाथ में…उसने उस कटी पतंग का धागा क्या पकड़ा…मेरा कोई सिरा उसके साथ अटक गया… पतंग हवा में फिर लहराने लगी… उस पे बहुत फब रही थी वो पतंग…ऐसा लग रहा था किसी डिज़ाइनर ने वो पतंग उसकी ड्रेस के साथ ही डिज़ाइन की है…वो रॅंप पर किसी रिक्शे में आगे बढ़ रही है…..एहसासो की तेज़ बौछार से मैं लगभग शून्य हो गया था… उसने नज़रें उठा के देखा….पूछा, तुम्हारी है ?
मेरा सर हाँ में हिला…
“चाहिए?”
मेरा सर खुद ना में हिल गया…
“ठीक है.. मैं ले जा रही हूँ ”
मेरा सर ”ओके” में हिल गया… ये मुझे क्या हो गया… मैं तो बिल्कुल रोबोट हो गया…. जाते जाते वो एक बड़ी सी स्माइल छोड़ गयी… वो मुस्कान देर तक मेरी आँखों से चिपकी रही… चूं-चां करता रिक्शा आगे बढ़ता गया… जब तक मैं वापस अपने होश में आया… रिक्शा दूर सफेद चूने से चमचमाते एक घर के सामने रुका था… वो उतरी और गेट खोल कर उसने मेरी ओर देखा…फिर मुस्कुराई … पता नहीं वो मुझे ही देख रही थी या किसी और को… पर एक बार फिर वो मुस्कान मेरे अंदर घुल रही थी… और एक मीठी जिज्ञासा मन को बेचैन करने लगी थी…. कौन है ये लड़की ?
आलस्य दूर हो गया था… चाहत में बड़ी चुस्ती होती है… हमेशा मुस्तैद कर देती है… नज़रें हमेशा ढूँढती रहती हैं उसे… जिसकी कशिश में आप बावरे हुए जा रहे हैं… अख़िरकार मुकुल से पता चला कि उसका नाम सिम्मी है… कुछ दिनों पहले ही उसके पिता.. चंडीगढ़ से रिटायर हो के लौटे हैं… और उसने दाखिला भगवती महिला महाविद्यालय में लिया है… यानी रोज़ कॉलेज तो जाती होगी… मैं उस चूने पुते घर के चक्कर लगाने लगा… पर वो कभी दिखी नहीं… मुकुल को जब ये बताया तो उसने हंस के कहा…
” तुम्हारी कागज़ की कश्ती तो एक ही झोंके में डगमगा गयी मियाँ… जहाँ वो रहती ही नहीं… वहाँ के चक्कर काट रहे हो…”
“सही कहा तुमने मुझे भी यही लगा था…इतनी सुंदर लड़की उस चूने पुते घर में कैसे रह सकती है..”
“क्यों वहाँ क्यों नहीं रह सकती ?”
” क्योंकि उस घर में कोई पोईट्री नहीं??
” पता नहीं क्या बक रहे हो तुम… पर अपने किसी दोस्त से मिलने आई थी वो वहाँ..”
“तो रहती कहाँ है?”…
“अरे मुझे क्या मालूम?” मुकुल थोड़ा चिढ़ सा गया था…
“तुम्हें इतनी जानकारी कैसे है उसके बारे में… कहीं तू भी तो नहीं…”
” पागल हो गया है…इन सब चीज़ो पे वेस्ट करने के लिए हमारे पास टाईम नहीं है…”
” तुम रोमॅन्स जैसी चीज़ को इतने सस्ते में निपटा रहे हो…”
” और क्या करूँ? साल भर उसके पीछे बर्बाद करेगा, तो एक आध चिट्ठी भेज पाएगा… और वो भी कहीं अंकल को पता चल गया.. तो बेवजह कुट जाएगा..”
” कुटने की किसे परवाह है…”
” तो एक बात और सुन ले. वो उस चूनेवाले घर के बाद मेरे घर भी आई थी.. रिंकी की दोस्त है वो…”
” रिंकी की दोस्त है ! ” मेरी तो जैसे ज़ुबान ही सिल गयी…मन में डर और खुशी दोनों एक साथ उछल पड़े… खुशी इस बात की रिंकी से सब कुछ पता चल सकता है… और डर इस बात का कि भांडा कभी भी फूट सकता है… प्यार का अंकुर फूटा भी नहीं था कि डर टीस मारने लगा था… मैने अपना डर छुपा के , बड़ी मुश्किल से अपनी ज़ुबान खोली… “मुकुल…पता तो ढूँढ दे यार… रिंकी से पूछ ना…प्लीज़”
” पागल हो गया है… मैं उससे नहीं पूछूंगा… उसे लगेगा कि उसके भाई का करैक्टर ठीक नहीं… उसकी नज़र में मेरी एक इज़्ज़त है…”
” अपने दोस्त के लिए ये सब करेगा तो इज़्ज़त और बढ़ जाएगी.. प्लीज़”
” चने के झाड़ पे मत चढ़ा… तेरे लिए ये गज़लों वाली मोहब्बत ही ठीक है.. चाहिए तो किसी डॉक्टर से प्रिस्क्रिप्शन पे लिखवा के ला देता हूँ.. तुम्हारे इस नये मर्ज़ की दावा…
” तू ऐसा करेगा मेरे साथ ??”
” ऐसा ही करूँगा… आंटी जी से इस घर के बाहर नो एंट्री का बोर्ड नहीं लगवाना मुझे…”
कई दिनों तक उसकी खुशामद की… तो वो तैयार हो गया, मुझे अपने साथ घर ले गया… आंटी शायद रात के खाने की तैयारी कर रही थी. दुआ सलाम का दौर शुरू हुआ…
नमस्ते अंकल, नमस्ते आंटी…
कैसे हो बेटा… रिंकी ने बड़ी अच्छी कस्टर्ड बनाई है. खा के जाना…
“जी आंटी ”
जाओ जाओ छत पे चले जाओ अच्छी ठंडी हवा चल रही है….
छत पे गया तो… धूप लगभग सिमट चुकी थी…फ़िरोज़ी रंग की टी शर्ट और काले पजामे में रिंकी मेरा ही इंतेज़ार कर रही थी… पास में ही कोल्ड क्रीम की एक डिबिया औंधी पड़ी थी… और कोल्ड क्रीम उसके पैरो में चमक रहा था… उसने बड़ी ही शरारत भरी एक मुस्कान से मुझे वेलकम किया…मैने भी एक झिझकती सी स्माइल उसे दी…और वहाँ पड़ी गार्डेन चेयर पे धँस गया. रिंकी सामने थी. मुकुल ने कहा… “रिंकी, ये तुम से कुछ पूछना चाहता है… ज़रा मदद कर दो इस ग़रीब की..”. कह के वो चला गया. रिंकी मेरी करीब वाली कुर्सी पे बैठ गयी… मुझे एकटक देखने लगी…” जी पूछिए…”
मैं पूछना तो उसका पता चाहता था पर… मेरा तो जैसे गला ही बैठा जा रहा था. समझ में नहीं रहा था क्या करूँ? पूछूं या नहीं पूछूं ?
रिंकी की आँखो में कुछ था… पता नहीं उम्मीद थी… भरोसा था.. क्या था पता नहीं… पर उसकी आँखो में कभी कोई क़ातिल तो कभी मेहरबां नज़र आ रहा था…
मेरी चाहत की आग ठिठुर के कहीं दुबक गयी थी शायद… ज़ुबान बग़ावत पे उतार आई थी… शब्द बाहर नहीं निकल रहे थे…
उसे शायद मेरे इस हाल पे मज़ा आ रहा था… वो बोली … पूछिए तो सही, क्या पूछना था …..अरे पूछने आए हैं… पूछिए न…
मैं छत से डूबते हुए सूरज को देख रहा था… मेरी चाहत का सूरज भी जैसे डूब गया था. मेरे डर ने उसकी हत्या कर दी थी. आकाश की लालिमा में उसके खून के छींटे मिले नज़र आ रहे थे….. मैं उठके वहाँ से चला जाना चाहता था… पर नीचे आंटी पूछेंगी .. अभी अभी तो आए थे … क्या हुआ… लड़ाई हो गयी… बचपन से इतना सुना था उनको कि उनके कहने से पहले ही उनकी आवाज़ें गूंजने लगती हैं मन में … पर यहाँ… तो मेरा हाल दूसरा था. रिंकी मुझे मुस्कुराके घूरे जा रही थी और मैं उससे नज़रें बचाए जा रहा था… सीढ़ियो से मुकुल इस सबका आनंद ले रहा था… वो हँसता हुआ सामने आया … बोला… बता दो बता दो… नया- नया आशिक़ है यहीं ढेर हो जाएगा. रिंकी ज़ोर से ठहाके मार के हंस पड़ी… वैसे तो उसकी हंसी बड़ी प्यारी है, पर आज मेरे कानों को खराश रही थी…
उसने पानी का ग्लास आगे बढ़ाया और बोली… रिलॅक्स !! मैं पता बताती हूँ… घंटाघर से जो रास्ता सदर बाज़ार की तरफ जाता है… उसी पे दस कदम आगे दाहिनी तरफ एक पीला मकान है. आनंद निवास. वहीं रहती है वो. मेरा रोम रोम खिल उठा… वो हंसी, बोली…उसका नाम नहीं जानना? और चुहलभरी नज़रों से मुझे देखती रही. मैं शर्म से पिघल रहा था. उसे बड़ा मज़ा आ रहा था. मैने नज़रें उठा के उसे एक झलक देखा … ज़बान फिसली… “नहीं !! मालूम है…”
” क्या??”
“सिम्मी”
“गलत “…
“उसका नाम सिम्मी है…”
वो हंस पड़ी.. पूछा “ किसने कहा? भैया ने? मैने तो जानबूझ कर उन्हें गलत बताया था…उल्लू बनाया था”
क्यों??
अरे!!! अपनी सहेली और भाई दोनो को प्रोटेक्ट करने के लिए….
मैं अवाक सा उसे देख रहा था… तो फिर ये मुझे क्यों बता रही है. मुझे भी तो उल्लू नहीं बना रही है ??
वो शायद मेरा चेहरा पढ़ रही थी… बोली… नहीं आपको उल्लू नहीं बना रही हूँ. अब आपको प्रोटेक्ट करने का कोई फायदा नहीं… आपकी पतंग तो पहले ही कट चुकी है…
वो खिलखिला कर हंस पड़ी. मैने किसी लड़की को इतनी करीब से कभी इस तरह हँसते नहीं देखा था…. उसकी आँखो में हंसी की चमक तो थी पर उसमें एक हल्का, झीना सा दर्द था, जो तब तो समझ नहीं पाया था… पर अब वो बड़ा साफ दिखने लगा था… आजकल ऐनक लगाने लगा हूँ शायद इसलिए..
उसकी हंसी थमी तो उसने कहा, उसका नाम जानना है तो एक डेयरी मिल्क देनी पड़ेगी….मैं तैयार हो गया…. रिंकी ने मुझे घूर कर देखा… उसकी नज़रें मेरी अंदर की गहराईयो को जैसे नाप रही थी.. उसने धीमे से कहा” ख्याति”
मैने नाम दुहाराया “ख्याति”….और उठ कर वहाँ से चल दिया… रिंकी भौचक्की रह गयी … क्या हुआ????
जाते जाते पलट कर रिंकी को थॅंक्स कहा. मेरी दुनिया जैसे उस एक शब्द, एक नाम में सिमट गयी थी… उसके आगे न तो मुझे कुछ दिख रहा था, न ही कुछ सुनाई दे रहा था सिवा ख्याति के… जैसा आकर्षण उस लड़की में था, वैसा ही उसके नाम में… मेरी चाल बदल गयी थी… पहली बार समझ में आया कि पाँव ज़मीन पे नहीं पड़ने का अर्थ क्या होता है… अब करनी तो आगे की प्लॅनिंग थी…पर दिल ज़िद्द पे अड़ा था कि घंटा घर का एक चक्कर लगा आऊं… जैसे ही घर में दाखिल हुआ, पालक की पत्तियों से जूझती माँ की उंगलियां अचानक रुक गयी… वो मुझे बस देखती रह गयी… मैं उनसे नज़रें बचा कर अंदर चला गया… किशमिशी सी रंग की शर्ट निकली, और पहन ली. ये शर्ट लक्की भी थी और मैं इसमें स्मार्ट भी दिखता था.
शर्ट पहन के निकला तो माँ सामने खड़ी थी, उन्होने पूछा कहाँ जा रहे हो, अंधेरा हो गया है?
“कब तक पूछती रहोगी, अब मैं बड़ा हो गया हूँ माँ” …
” जब तक ज़िंदा हूँ पूछती रहूंगी… और सुन लंबा हो जाने से, बारहवीं में चले जाने से, कोई बड़ा नहीं हो जाता… और अगर तुम वाकई बड़े हो गये होते तो तुम्हारे पापा की हथेलियो को तुम्हारे गाल पे नक्शा बनाना क्यों पड़ता ? इश्क़ की जितनी हवा भरी थी दिल के गुब्बारे में, वो फूस्स्स हो गयी… मेरा दिल पंक्चर हो गया… कौन बनाएगा.. ये पंक्चर… कहाँ मिलेगा ये पंक्चर वाला… निराशा जब पैरो से लिपटती है तो जैसे कदम दलदल में धंसने लगते हैं…. और मन.. रेगिस्तान में उड़ने लगता है…
मेरे चेहरे पे 12 क्या चौबीस बज गये थे शायद… और अब तक सख्ती में क़ैद ममता अचानक मुक्त हो गयी थी… माँ ने कहा, ठीक है, जा… पर जल्दी आ जाना…
मैं आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ने लगा… अचानक पीछे से आवाज़ आई, “रुक्ककक”.. मेरे कदम ठिठक गये.. अब नया क्या??? पलट के देखा तो माँ अपने आँचल का एक सिरा खोल रही थी… उसमें से 2 रुपये का एक मुड़ा तुडा पुराना नोट उन्होने मेरी हथेली पे रख दिया…” रख ले… कुछ खाने का मन किया तो…” वो मुस्कुराइ… उनके चेहरे की सिलवटें गहरी हो गयी थी.. पर आँखो में भरोसे की एक चमक थी… ये चमक मुझे अक्सर अच्छी लगती थी, पर न जाने क्यों आज इनसे थोड़ा डर लग रहा था….
मैं पलट कर बाहर निकला तो…गली का लॅंप पोस्ट जैसे आँख मिचौली खेल रहा था… बार बार जल बुझ रहा था… दो रिक्शे दनदनाते हुए सामने से निकले… शायद उनमें होड़ लगी थी कहीं पहुचने की… जल्दी तो मुझे भी थी…. मैने तीसरे रिक्शे को हाथ दिया और उस पे हो लिया…कहा… भाई थोड़ी तेज़ी से… देखो वो कैसे जा रहा है… रिक्शे वाले ने पलट के देखा और कहा “बहुत जल्दी है. महबूबा से मिलने जा रहे हो” “महबूबा !!? इसने कितना छोटा और फिल्मी कर दिया मेरे प्रेम को… मैने कहा आप सामने देखिए और मेरी चिंता छोड़ के अपने काम से मतलब रखिए…
मतलब ही तो निकाल रहे हैं… ऐसे सज-बज के सेंट लगा के इस वक़्त अकेले… आशिक़ ही निकलते हैं.. ये आशिक़ी का पहर है…
सुनकर अच्छा लगा कि मैं आशिक़ लग रहा हूँ… पर ये आशिक़ी का पहर है.. इस बात का ज्ञान मुझे नहीं था… अब समझ में आया … माँ ने क्यों टोका था… माँ सब समझ जाती है शायद… फिर उन्होने मुझे आने दिया ? वो नोट अब तक मेरी मुट्ठी में था… मैने मुट्ठी खोली तो नोट हवा के झोंको में फड़फड़ाने लगा… उसे ठीक से पकड़ के गौर से देखा… उसकी हर सिलवट में किसी के हाथ की कहानी थी… किसी के हाथों का कुमकुम, तो किसी की कालिख, किसी की मिट्टी, किसी का … और भी ना जाने क्या क्या लगा था उस नोट पर… हाथों से हाथों तक के अपने अंतहीन सफ़र की कहानी कहता. पर मैं उस नोट में कुछ और ही ढूँढ रहा था. ये नोट उनके भरोसे का चिट्ठा है या मेरे इश्क़ की मंज़ूरी की पहली टिकट…
ये मैं सोच ही रहा था की घंटा घर आ गया था, हम सदर बाज़ार की राह पर मुड़े तो दाहिनी ओर पीली रोशनी में नहाया वो मकान नज़र आया… उसकी छत पे शॉल लपेटे… एक लड़की नज़र आई… रगों में लहू चाहत में भी तेज़ दौड़ता है. इस बात का एहसास हुआ उस पल… आँखें छत पे टिकी थी और दिमाग़ इस गणित में लगा था कि क्या वही है ख्याति ?
मेरा रिक्शा उसकी ओर बढ़ रहा था… वो दूसरी ओर जा रही थी… बुरा नहीं लगा रहा था… चाहत में अभी तक मैं इतना ग्रीडी (लोभी) नहीं हुआ था… पर मन ये जानने को बेचैन था कि ये वही है कि नहीं… प्यार के सारे पुराने सुने-सुनाए फंडे याद आ रहे थे – दिल को दिल से राह होती है, दिल से कहो तो दिल सुनता है, दिल से पुकारो तो वो पलट कर ज़रूर देखेगी.. वग़ैरह वग़ैरह. मन उसका नाम जपने लगा. और … और वाकई वो पलटी… ओह गॉड !!! ये तो सच है. वो सड़क की ओर बढ़ रही थी… मेरा रिक्शा उसकी ओर… दिल कुलाँचे मार रहा था … एक पल में सैकड़ो ख़याल… मैने कहा था ना… प्यार में गज़ब की स्फूर्ति होती है… महसूस हो रही थी…. मेरा रिक्शा उस मकान के बहुत करीब था और वो अब भी छत के इस किनारे से दूर. उसकी शक्ल नहीं दिखी. मैं चूक गया था.. रिक्शा दनदनाता हुआ आगे निकल गया था… खुद पे झुंझलाहट भी हुई कि .. क्यों कहा था रिक्शा वाले को इतना तेज़ चलाने को … रिक्शा वाले को कहा, भैया, एक मीं… वापस ले लो… उसने पलट कर देखा… मैने इशारा किया… उसने तेज़ी से रिक्शा वापस मोड़ दिया…. वो मकान फिर से दिखाई देने लगा था, पर वो दिख नहीं रही थी… रिक्शा तोड़ा और आगे बढ़े तो शायद दिख जाए… अरे वो है… इस बार दिख जाए वो… बसस्स…हाँ अब भी खड़ी थी डोर… उसका चेहरा सफ दिख नहीं रहा था… काश ठीक से दिख जाती… कोई उसके चेहरे पे थोड़ी रोशनी नहीं मल सकता … ताकि उसका चेहरा जगमगा उठे… और मेरी नज़रें उसे छू पाए…
छू पाए ? नहीं इश्क़ में ज़रा दूरी ही अच्छी होती है… मेरे मन में घंटियाँ बज रही थी या रिक्शे की.. पता नहीं… पर इन घंटियों ने मुझे जगाया… रिक्शा बिल्कुल उसके मकान के सामने था और उसकी रफ़्तार बिल्कुल धीमी हो गयी थी… वो दूर थी, दूसरी ओर देख रही थी… गिरिजाघर की ओर…पास के किसी मंदिर में शायद आरती हो रही थी… लोग दर्शन कर रहे होंगे अपने विश्वास की प्रतिमा की .. पर मेरा दर्शन अधूरा था…. उसका चेहरा नज़र नहीं आ रहा था… उसका मकान पीछे छूट रहा था…. मेरी नज़रें उस पे चिपकी थी… गर्दन टेढ़ी हुई जा रही थी… वो किनारे की ओर बढ़ रही थी… मैने रिक्शे वेल से कहा जल्दी से वापस ले लो… रिक्शे वाले ने तेज़ी से घुमाया… और रिक्शा उस मकान की ओर लपका जैसे कोई योद्धा अपने दुश्मन की ललकार सुनकर उसकी ओर लपका हो… वो आगे बढ़ रही थी… वो आगे आ के छत की चहारदीवारी के पास खड़ी हो गयी… मुझे मेरी धड़कनें सुनाई दे रही थी… वक़्त जैसे थम गया था… और रिक्शा अबाध गति से उसकी ओर बढ़ रहा था… रोशनी का एक छोटा सा टुकड़ा उसके गाल को सहला रहा था… ये ख्याति ही तो है…..
मेरी नज़रें उससे हटने का नाम नहीं ले रही थी… उसकी इस झलक ने मुझे एकदम शांत कर दिया था… एक अजीब सी शीतलता मन में पसर रही थी… पर बाहर पसीने की बूँदें छलक रही थी… वो कहीं और देख रही थी… शायद उसकी नज़रें किसी को ढूँढ रही थी… कहीं मुझे ही तो नहीं…वो शायद थोड़ी हिली … रोशनी का वो टुकड़ा और बड़ा हो गया था.. उस रोशनी में उसका चेहरा खुल के झाँकने लगा था… उसकी नज़र मेरी तरफ बढ़ रही थी… मेरा रिक्शा उसकी ओर बढ़ रहा था… उसकी नज़रो ने मुझे छुआ एक हल्की सी गुदगुदी हुई… वो मेरी आँखो में देख रही थी… उसकी आँखें उस मद्धम रोशनी में भी चमक रही थी… बहुत कुछ था वहाँ शायद मेरे लिए.. पता नहीं…उसका मकान सड़क से ठीक लग के था… और उसकी परछाई अब मुझ पर गिर रही थी… मैं उसके साए में था… एक अजीब सी सिहरन मेरे अंदर पिघलने लगी… मेरा हलक सूख रहा था… वो मुझे देख के मुस्कुरा रही थी.. उसने मुझे पहचान लिया था… शायद…. नहीं नहीं शायद नहीं.. पहचान लिया था उसने मुझे देख कर अपना हाथ हिलाया. मैं फिर रोबोट हो गया था. मेरे हाथ भी हिल गये. वो मुझे देखती रही. मैं भी उसे देखता रहा. लगा शायद इसी लम्हें के लिए मैं जीता रहा… नहीं नहीं.. तब तो कुछ लगा ही नहीं… खोया था मैं उसमें… उसकी नज़रें घुल रही थी मुझ में… पोर पोर में छलक उठी थी एक अजीब सी गुनगुनी मिठास… पहले कभी चखी नहीं ये मिठास… उसका मकान दूर हो रहा था… पर मिठास पास थी… नवंबर की ये अंधेरी रात उजाले बरसा गयी थी…
एहसासो की इस गर्मी में ज़िंदगी बदल रही थी. दिनों को पंख लग गये थे… गज़लें छूट गयी थी…उसके घर के चक्कर लगा लगा के उसे देखते देखते हौसला बढ़ रहा था… अनकहे प्यार को नाम देने के लिए मन मचल रहा था… मैं एक बार फिर रिंकी की शरण में पहुँचा… उस दिन घर में कोई नहीं था वो एक ढीली गुलाबी कुरती में मुझे देख के मुस्कुराई . उसकी कुरती का गुलाबी रंग उसकी गर्दन और गालो पे बिखरा था…उसने अपने बाल पीछे बाँधते बाँधते पूछा… कैसी चल रही है आपकी मोहब्बत…. मैने उसे हैरानी से देखा… तब तक दूसरा सवाल सामने था…. इश्क़ में ग़ालिब बन रहे हैं या गुलज़ार… वैसे वर्ड्सवर्थ भी अच्छा ऑप्शन है. ये पढ़ने लिखने वाली लड़कियो से ना अक्सर मुझे बड़ा ख़तरा होता है… वो सीधे-साधे प्रेम को भी न प्लेटोनिक बना देती हैं… वैसे मैं भी तो हर चीज़ में पोईट्री ढूंढता रहता था… मैने हंसकर अपनी झेंप मिटाई… उसने कहा आपने उसकी गलियो के जीतने चक्कर लगाए हैं, उतना अगर आप सीधा चलते तो आज इलाहाबाद से शिमला पहुँच जाते. मैं फिर से हंस पड़ा. मुकुल आ गया, बोला, रिंकी इसका कुछ करवा दो नहीं तो ये ख्याति के घर के सामने वाली दुकान के समोसे खिला-खिला के मुझे बैल बना देगा…रिंकी ने कहा, बनाने की ज़रूरत है क्या ?
” बकवास मत कर इसकी हेल्प कर दे…..”
” हाँ हाँ मैं तो कब से वेट कर रही थी इनका… कि अब आएँगे, अब आएँगे.. इन्हें देखती रहती थी पर ये हमें कहाँ देखते… बताइए… मुकुल ने कहा अरे बताएगा… क्या ? खुद समझ जाओ… उसे बता दो, कि वो कितनी शिद्दत से उसे चाहता है. रिंकी ने शरारत से पूछा, ” कोट अनकोट में कोई लाइन… या पत्र वत्र”… पता नहीं हर बार प्यार के नाम पे मैं रोबोट क्यों बन जाता हूँ. मैने न में सर हिला दिया. उसके होठों पे एक मुस्कान तैर आई जैसे वो जानती थी कि मैं यहीं जवाब दूँगा. पर मैं उसके जवाब के इंतज़ार में था….
रिंकी कुछ दिनों तक नहीं आई, मुकुल से भी पूछा तो उसने बात टाल दी. आख़िर हुआ क्या. ख्याति को छत पे देखने गया, तो उसने देखा और पलट कर चली गयी. मैने रिंकी के नाम संदेश छोड़ा. तो वो उस शाम आई. थोड़ी चुप सी थी. मार्च के आख़िरी दिन थे. मौसम रूखा हो रहा था. मैं उसे देख कर खड़ा हो गया “तुमने बताया नहीं?”
“क्या बताऊं? बताने जैसा जवाब नहीं?” कहते कहते वो थोड़ी असहज सी हो गयी थी …
“फिर भी … अरे मैं इतना कमज़ोर नहीं हूँ… मना कर दिया उसने ?”
पहली बार उसने रोबोट की तरह सर हिलाया… मुझे बुरा लगा… एक हंसती-खेलती लड़की मेरी वजह से रोबोट बन गयी.. फिर भी पूछा…
“उसने कहा क्या ?”
” मैने बहुत तारीफ की आपकी. उसे बहुत समझाया पर वो किसी और ही मिट्टी की बनी है.”
“ ठीक है … पर कहा क्या उसने ?”
“ अच्छा नहीं लगेगा आपको सुनके…”
मेरी आवाज़ थोड़ी सख़्त हो गयी थी… “ क्या कहा ?”
उसने मेरी आँखो में देखते देखते कहा….
“ यही कि .. अगर वो इतना ही अच्छा लड़का है, तो तू ही उससे प्यार क्यों नहीं कर लेती “
मैं स्तब्ध रह गया था.
वो मुझे एकटक देख रही थी. मैं उससे नज़रें चुरा रहा था…
मैं वहाँ से निकल गया….वो मुझे देख रही थी… मैं वहाँ से क्या घर से बाहर निकल गया… रिंकी की वो आवाज़ बार बार मेरे अंदर गूँज रही थी…
“अगर वो इतना ही अच्छा लड़का है, तो तू ही उससे प्यार क्यों नहीं कर लेती”
मैने पहले मौके पे ही शहर छोड़ दिया. और कोशिश यही रही की वापस नहीं जाऊं …आज सात साल हो गये इस बात को…मौसमों में मेरी दिलचस्पी ख़त्म हो गयी है… अब कहीं पोईट्री नहीं ढूंढता… मुकुल आ रहा है… मेरा अतीत करवट ले रहा है… अतीत भी नहीं है ये… क्योंकि मैने हर रोज़ इसे जिया है… मेरी आज की ज़िंदगी के साथ… कुछ कल कभी पीछे नहीं छूटते आपकी स्मृतियों में कौंधते रहते हैं आज बनकर…
मेरा दोस्त मेरे सामने था… हंसी मज़ाक के दौर के बाद…. बात रिंकी पे आकर ठहर गयी थी… कमरे में खामोशी चहल कदमी कर रही थी… बाहर मुंबई का घना शोर था…. दूर कहीं से मगरिब के अज़ान की आवाज़ आ रही थी. मुकुल शायद अपने शब्द टटोल रहा था. मैं उसकी ओर देख रहा था. कुछ समझ में आ तो रहा था, पर दिल समझना नहीं चाह रहा था. मुकुल पलटा उसकी आँखें भारी थी. मेरा दिल एक अंजानी आशंका से काँप उठा. मुकुल ने एक लंबी साँस लेके कहा, यार पता है… उसकी आवाज़ रुंध गयी थी. “पता है, यार रिंकी न उस लाइन से कभी उबर ही नहीं पाई”. मेरी ज़ेहन में फिर से वो आवाज़ कौंधी…
“अगर वो इतना ही अच्छा लड़का है, तो तू ही उससे प्यार क्यों नहीं कर लेती”…
मुकुल ने आगे कुछ नहीं कहा, वो अपनी आँखें पोछते पोछते बाहर चला गया… रिंकी की ये बात सुनकर मैं फिर से रोबोट बन गया….
आज सुबह… सूरज से थोड़ी धूप, थोड़ा उजाला उधार लिया है…और निकल पड़ा हूँ अपने शहर की ओर सात सालों के बाद…
– अंशुमाली झा
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