किस्से का किस्सा-4
भारत में पैदा होने वाला ही नहीं – वरन सारी दुनिया में पिछली सदी में पैदा हुआ कोई भी ऐसा शख़्स नहीं होगा, जिसका जीवन मोहन दास करमचंद गांधी नामक जीव से प्रभावित ना हुआ हो.
आज 30 जनवरी की रात जब शुरू हुई है तो अपने बिस्तर पर बैठा – मैं – माणिक मुल्ला सोने के बजाए क़लम उठाकर अपनी कहानी कहने को विवश हो गया हूं.
तो आज रात 12बजे के बाद – तीस जनवरी की तारीख़ शुरू हो गई है और सारा विश्व कल किसी न किसी रूप में उस महान व्यक्ति को याद करेगा , जिसे हम ‘बापू‘ कहते हैं – जो इस राष्ट्र का राष्ट्रपिता कहलाता है
नहीं ! माणिक की उम्र इतनी नहीं कि उन्होंने बापू को देखा हो !
पर बापू जैसे लोगों के जीवन , कर्म और कथा से बचकर जिया ही नहीं जा सकता !
आज 2020 की रात जब तीस जनवरी की तारीख़ शुरू हो चुकी है – तो सच्ची झूठी प्रेम कहानियों के शौक़ीन माणिक मुल्ला के दिमाग़ में बापू कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से दस्तक दे रहे हैं!
बापू के नाम से आप अपने आपको कैसे जोड़कर देखते हैं ये तो आप ही जाने – पर बापू के जीवन को मैं माणिक मुल्ला कैसे देखता हूँ वो आज आपसे साझा करना चाहता हूँ !
अभी कुछ दिन पहले ही 26 जनवरी के दिन मुंबई में लखनऊ के हिमांशु बाजपेयी और चेन्नई के वेदांत भारद्वाज ने गांधी की अभय कथा सुनाई जिसे न सुन पाने का रंज माणिक को तब तक रहेगा जब तक वे ‘गांधी -अभय कथा’ को सुन नहीं लेते !
अब फ़ेसबुक पर हिमांशु और वेदान्त गांधी – कथा के प्रयोग ‘दास्तानगोई‘ के चित्र लगातार शेयर कर करके ललचा रहे हैं
गाँधी को आप कैसे समझते हैं ये तो पता नहीं पर माणिक ने सबसे पहले गाँधी पर बनी तीन घंटे की डॉक्युमेंट्री देखी थी – ‘महात्मा’ !
बनारस के दीपक टाकीज में जब वे बच्चे थे!
(यह फ़िल्म आज भी यूट्यूब पर देखी जा सकती है)
‘महात्मा‘ नाम की यह फ़िल्म गांधी के चित्रों और डॉक्यूमेंट्री टुकड़ों को मिलाकर बनायी गई थी और कई बार निराश होने के बाद ही इस शो का टिकट माणिक को मिला था!
बच्चे माणिक को यह फ़िल्म कितनी समझ आयी होगी पता नहीं – पर फिर भी कुछ तो ऐसा था ही , जो उसके मासूम मस्तिष्क में घुस कर बैठ गया था!
उसके बाद 1982 में रिलीज़ हुई थी और रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म – ‘गांधी’ !
तब माणिक सिनेमा के नए नए विद्यार्थी हुए थे – लगभग तभी उन्हें लखनऊ के कुमुद नागर जी के नौटंकी-
‘हरिश्चंद्र की लड़ाई’ देखने का मौक़ा मिला था- इस नाटक का कथानक एक ऐसे नौटंकी कलाकार के व्यक्तिगत जीवन की व्यथा है , जो गाँव के नौटंकी में राजा हरिश्चंद्र का रोल करता था!
इस नाटक का शो करते करते वह स्वयं हरिश्चंद्र जैसा सत्यवादी हो गया था और बहुत दुखी और परेशान भी!
वो माणिक को सत्य की बाद छू गई थी !
दसियों साल के बाद उसे काम मिला था – जिसमें उसे श्याम बेनेगल की फ़िल्म- ‘ मेकिंग ऑफ़ महात्मा ‘ के संदर्भ में एक आलेख लिखना था – जो कलकत्ते से निकलने वाली किसी साहित्यिक पत्रिका में छपना था.
श्याम बेनेगल से बातचीत करने से पहले फ़िल्म देखना ज़रूरी था – तब फ़िल्म हॉल में लगी थी !
माणिक रात का शो देख आए- और तब जैसे उनके ज़ेहन में रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’मुकम्मल हुई थी माणिक ने अपने आलेख में लिखा था कि गांधी की फ़िल्म दो भागों में देखी जानी चाहिए !
पहला भाग है श्याम बेनेगल की फ़िल्म – ‘ मेकिंग ऑफ़ महात्मा ‘ और दूसरा भाग है रिचर्ड एटनबरो की फ़िल्म ‘गांधी !
इसका कारण यह है कि ‘मेकिंग ऑफ़ महात्मा’ – गांधी के दक्षिण अफ़्रीका के जीवन वाले हिस्से को ही दिखाती है ! गांधीजी दक्षिण अफ़्रीका ने 21 वर्ष रहे थे – और यही वे साल थे जब मोहन दास नामक साधारण वक़ील के जीवन में ’महात्मा’ बनने का बीज पड़ा था!
अब आगे की कहानी तो सभी जानते हैं !
अगर किसी कारण से आपने ‘गांधी’ फ़िल्म नहीं देखी है – तो उसे फिर से एक बार देखने की ज़रूरत है!
‘गांधी’ फ़िल्म की शुरुआत में फ़िल्मकार कहता है-
‘किसी भी आदमी के जीवन की कहानी – एक ही बार में पूरी तरह नहीं कही जा सकती !
फिर गांधीजी की तो जीवन गाथा तो पूरे देश और उसकी आज़ादी के संघर्ष का इतिहास है !
उसके साथ जुड़ी घटना और व्यक्ति के साथ , थोड़े से समय में पूरा न्याय कर पाना संभव नहीं –
संभव है कि हम ईमानदारी से उनके जीवन धारा के तत्व को दर्शा सकें! उनके मन और आत्मा तक अपने को पहुँचा सकें!’
अलबर्ट आइंस्टाइन ने कहा था – ‘आने वाली पीढ़ियों को ये मुश्किल से विश्वास होगा कि – हाड़ – मांस का एक ऐसा भी व्यक्ति कभी इस धरती पर चला था ‘
माणिक के जीवन में गांधी और गहरे उतरे – जब उन्होंने बार बार फ़िल्म देखने के बाद भी उनकी पुस्तक ‘माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ ‘ पढ़ी!
माणिक को आश्चर्य होता है कि गांधीजी स्वयं अपने ऊहापोह को , जटिल मानवीय संवेदनाओं को , किस सहजता से लिख जाते हैं – यह किसी आश्चर्य से कम नहीं!
किताब पढ़ते हुए माणिक को लगता है कि – वो कोई किताब नहीं पढ़ रहे – बल्कि स्वयं गांधीजी की आवाज़ उन्हें अपने मन मस्तिष्क में सुनाई पड़ रही है! यह सोचकर उन्हें हमेशा ताज्जुब होता रहा है कि जो शब्द वो किताब में पढ़ रहे हैं – वह कभी गांधी के मस्तिष्क में जन्मे थे!
भावुक माणिक को हमेशा लगता रहा कि लेखक को यह वरदान प्राप्त है कि उसके शब्द उसकी फुसफुसाहट के रूप में पढ़ने वाले के दिमाग़ में बजती रहे!
माणिक के मन में वो क़िस्से बार -बार उथल -पुथल करते हैं-
जब गांधीजी ने सिगरेट पिया-
या अपने पिता की जेब से पैसे चुराए –
बाद में पत्र में बताकर माफ़ी भी माँगी!
इस बालक मोहन ने कैसे इसे भोगा होगा
और फिर एक लेखक ने कैसे इसे ईमानदारी से साझा किया!
गांधी के इस ‘सत्य के प्रयोग’ ने उस ज़माने के लाखों लोगों को चमत्कृत कर दिया था!
तीसरी दिलचस्प घटना थी – गांधी के पिता की मृत्यु की, उस रात की – जब गांधी उनके बग़ल में बैठे थे और अचानक वहाँ से उठकर कुछ समय के लिए अपनी पत्नी के पास प्रेम करने चले गए थे.
प्रेम करने के बाद गांधी अपने पिता के बिस्तर के पास लौटे तो उनकी मृत्यु हो चुकी थी
उस युवक गांधी को एक गहरे आत्मग्लानि ने घेर लिया था
और उन्होंने ब्रह्मचर्य का कठिन प्रण कर डाला
गांधी के लिए ब्रह्मचर्य था – सेक्स से ज़बरदस्ती विमुख हो जाने की साधना
इस साधना में एक ज़बर्दस्त आंतरिक द्वंद्व रहा होगा!
गांधी ने इस द्वंद्व को एक आध्यात्मिक शक्ति में ज़रूर बदला होगा!
और शायद यही कारण रहा हो कि लाखों लोग उनके दीवाने हो गए थे !
बिना आज के सोशल मीडिया और टेलिविज़न के , इस महाद्वीप में वे एक ऐसा आंदोलन खड़ा कर चुके थे, जिससे भारत का आम आदमी जुड़ा था!
वे एक कम्यूनिकेटर थे !
वे अपनी बात – बड़ी सहजता से अंग्रेजों के बीच रख सकते थे – और गाँव के सामान्य जन से भी उसी सहजता से जुड़ जाते थे! बाद के वर्षों में ‘गांधी‘ एक व्यक्ति का नाम नहीं रह गया था – वह एक आंदोलन था – जिसने इतिहास के उस दौर में जीने वाले जन -जन को छुआ था!
महात्मा गांधी के मारे जाने के 11 वर्षों के बाद जन्मे थे माणिक मुल्ला – और गांधी ने उनको भी उतना ही छुआ था!
ख़ुद माणिक के जीवन में ‘सत्य के प्रयोग’ ने एक अलग ढंग से सेंधमार दी थी
बिना अपनी बातों को तूल दिए वे अपने ढंग से जीवन में सत्य को उतारने लगे थे
गांधी और कांग्रेस के उस दौर में गांधीवादी कहे जाने वाले लोग पता नहीं किस मोड़ पर मुड़े और ग़ायब हो गए!
कहा जाता है आज़ादी मिलने के बाद कुछ पत्रकार गांधी का इंटरव्यू लेने गए थे , पर गांधीजी विभाजन से आहत थे और उन्होंने इंटरव्यू देने से यह कह कर मना कर दिया था- ‘कि उनसे कह दो गांधी को अंग्रेज़ी नहीं आती’
माणिक को ‘गांधी’ फ़िल्म का वह दृश्य याद आता है – जब गांधीजी बिड़ला हाउस की प्रार्थना सभा में जा रहे थे और उन पर गोली चली थी ! वो गांधी जी की मृत्यु के शोक में पूरा विश्व डूब गया था! उस प्रार्थना सभा के कुछ समय पूर्व ही फ़्रांसीसी छायाकार हेनरी कार्टर ब्रेसों ने उनसे बातचीत की थी और शायद तभी यह चित्र भी निकाला था
लाखों लोग उनकी शवयात्रा में शामिल हुए थे ! सिर्फ़ तब नहीं जब उन्होंने अपना पार्थिव शरीर छोड़ा था सन् 1948 में बल्कि तब भी जब रिचर्ड अटेनबरो ने ‘गांधी’ बनाते समय गुहार लगायी थी और गांधी’ फ़िल्म के लिए फ़िल्माए गए शव यात्रा के दृश्य में लाखों लोग शामिल हुए थे !
सिनेमा के पर्दे पर फिल्माया जाने वाला यह दृश्य मार्मिक तो है ही दुनिया के किसी भी फ़िल्म की शूट के लिए इतनी भारी भीड़ पहले कभी जमा नहीं की गई थी! यह एक विश्व रिकॉर्ड है !
माणिक की उम्र होने आयी और उनके अंदर ‘गांधी’ जवान होने लगे हैं! अपने कार्यशालाओं में वे गांधी का ज़िक्र करते हैं रिचर्ड एटनबरो के उस संघर्ष का ज़िक्र करते हैं कि – कैसे 18 वर्षों की कठिन तैयारी के बाद उन्होंने ‘गांधी’ फ़िल्म का निर्माण किया और कैसे बेन किंग्सले जैसे साधारण अभिनेता को ‘गांधी’ बना दिया!
जब भी कहीं आंदोलन होगा- सत्याग्रह होगा !
गांधी वहाँ होंगे ही !
गांधी को इस महाद्वीप से डिलीट नहीं किया जा सकता !
‘वैष्णव जन तो तेने कहिए
जे पीर पराई जाने रे!’
⁃ रवि शेखर
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