किस्से का किस्सा-3
एक थी निशा…!
सुंदर, सुशील, गृहकार्य में निपुण…!
बड़ा प्यारा गाँव था निशा का ! नदी, पहाड़, जंगल, हरियाली – वो सब था – जिसके लिए गर्व कर सकती थी वो !
पास कस्बे को जोड़ने वाली एक पतली सी सड़क थी ! गाँव से बैल और बैलगाड़ी, दोनों विदा हो चुके थे ! टी वी आ गया था ! लोग देर रात तक फिल्म और सीरीयल देखना सीख चुके थे ! साथ ही वे देर तक सोना भी सीख गए थे ! बीसवीं सदी के जाते ही गाँव शहर बनने पर आमादा थे ! बच्चे ‘मैजिक’ में बैठकर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ने, गाँव से बाहर जाने लगे थे !
अपने गाँव में रहते हुए भी निशा ने बी. ए. तक की पढ़ाई पूरी कर ली थी !
माँ -बाप अपने बच्चों को जितना प्यार बचपन में करते हैं, उतना ही जवानी में नहीं कर पाते हैं!
भारत के अधिकांश माता- पिता अपने बच्चों को अपना मित्र भी समझें – ऐसा हो नहीं पाता। इसके पीछे सबके अपने- अपने कारण हो सकते हैं ।
पर हिंदुस्तान में जब लड़की जवान होती है तो वह इन्सान कम रह जाती है बस वह एक लड़की रह जाती है।
ख़ासतौर पर जब लड़की का शरीर बदलने लगता है – तो घर में एक नई मुसीबत शुरू हो जाती है! घर के लोगों की भी निगाहें बदलने लगती है। अनायास मिल जाने वाला आकर्षण संभालना आसान नहीं होता।
ऐसा ही निशा के साथ हुआ था! पर निशा कोई बच्ची नहीं थी । टीवी घर में हो तो बच्चे भी बच्चे कहाँ रह जाते हैं ?
निशा के बड़ी हो जाने का पता भी सब को चल गया था!
माँ तो चाहती थी – बस किसी तरह उसकी शादी हो जाए और किसी तरह वह अपने ससुराल चली जाए!
जवान बेटी को संभालना कोई खाने काम थोड़े ही है !
हर माँ की तरह निशा की माँ भी यही चाहती थी !
और निशा के पिता के सामने सबसे पहले उसने ये दरख्वास्त 4 साल पहले लगायी थी !
फुसफुसाकर एक दिन निशा के बापू के कान में उसने बताया था कि निशा शादी लायक हो रही है – ज़माना ख़राब है, इसके पहले कि कुछ ऊंच – नीच हो जाए तो क्या होगा ! लड़की को विदा कर देना ज़रूरी है!
निशा की माँ को , उसकी माँ ने भी शायद ऐसे ही निपटाया होगा ।
मायके से अगाध प्रेम होने के बावजूद, निशा की माँ कभी जा के अपनी मायके कभी नहीं रही! किसी न किसी बहाने, कुछ न कुछ कहानी बनाकर, वह अपने घर आ ही जाती थी!
ऐसा कब कैसे हो जाता है किसी को पता नहीं चलता!
इसीलिए तो कहते हैं – बेटियाँ पराया धन होती हैं !
जवान होती निशा का शरीर, निशा की माँ (जिसे हम प्रभा कह के काम चला लेंगे) , को अपने दिन याद दिलाने लगे थे!
वो ज़माना ही कुछ और था ! तब गाँव में शहर से ज़्यादा खुलापन होता था !
देखकर भी अनदेखा करने का स्वांग करना – गाँव वाले ख़ूब जानते थे !
पता नहीं क्यों हिंदी सिनेमा वालों ने यह भ्रम फैला रखा है कि प्यार जीवन में एक बार ही होता है!
प्रभा को लगा था कि वही सब घटनाएँ उसके सामने फिर से दोहराई जाने वाले हैं – जो सत्रह साल पहले हुई थी !
यह कोई नई बात नहीं थी !
प्रभा को प्रेम हो गया था !
बस मुश्किल ये थी कि – प्रभा को यह प्रेम एक ऐसे लड़के से हो गया, जो
उसके चाचा का सगा बेटा था. यानी अपने ही चचेरे भाई सुरेश से!
तब तक प्रभा के गाँव में TV नहीं आया था ! तब तो रेडियो ही था ! और रेडियो के उद्घोषकों की आवाज़ से इश्क़ हो जाना मामूली बात थी !
तब रेडियो नाटकों का ज़माना था – प्रभा रात के साढ़े नौ बजे प्रसारित रेडियो नाटकों को कान लगा के सुनती थी और ख़ुश हो जाती थी ! रेडियो सुनने से किसी को कोई तक़लीफ नहीं होती थी ! रेडियो में आने वाले कितने ही गीत उसे कब याद हो गए पता ही नहीं चला था !
प्रभा सुरेश के साइकिल के आगे बैठ स्कूल जाया करती थी !
छठवीं कक्षा के आगे का स्कूल गाँव में नहीं था और उसके लिए पास के क़स्बे जाना होता था !
गाँव में सुरेश का घर प्रभा के घर के सामने ही था । वे बचपन से साथ साथ बड़े हुए थे ।
दरअसल , प्रभा के दादा जी और सुरेश के दादा जी सगे भाई थे ! एक जमाने में वो एक ही परिवार था ! पर अब जायदाद का बंटवारा हो चुका था । फिर भी खून तो एक है था ! सुख -दुख में सभी साथ रहते थे !
प्रभा को तो पता ही नहीं चला कि कब सुरेश से उसका प्रेम हो गया !
तब तो प्रभा के शरीर में कुछ ख़ास बदलाव दिखाई भी नहीं पड़ रहा था! सब उसे बच्ची ही समझते थे !
किसी को कभी कोई श़क नहीं हुआ – क्योंकि वे भाई बहन थे !
सुरेश और प्रभा को साथ साथ स्कूल जाते देखना सबकी आदत बन चुकी थी!
बात इतने पर रुक गयी होती – यदि प्रभा और सुरेश को सिनेमा देखने का चस्का नहीं लगा होता !
प्रभा क़स्बे में स्कूल जाती थी – वो तो कुछ ख़ास नहीं था ! रास्ते भर के लोग दोनों को पहचानते थे ! और लोग इसके आदी हो गए थे ! गाँव के दूसरे परिवारों की लड़कियाँ भी साइकिल से स्कूल जाने लगी थीं ! बस फ़र्क इतना था कि प्रभा ख़ुद साइकिल चलाकर स्कूल नहीं जाती थी !
प्रभा की माँ ने कई बार चाहा कि – प्रभा को एक अलग साइकिल दिला दी जाए – पर प्रभा के लापरवाह पिता इस बात को टाल जाते थे ! उनके दिमाग़ में यह बात आयी ही नहीं थी कि अपने ‘सुरेश बाबू’ जिनको नाक पोंछने का सऊर नहीं है -ऐसे लौंडे से प्रभा का प्रेम हो जाएगा !
प्रभा को साथ साथ स्कूल चार साल कैसे बीत गए किसी ने ध्यान ही नहीं दिया !
अब प्रभा और सुरेश में एक ऐसी दोस्ती हो गई थी जो पता नहीं क्यों किसी को दिखाई नहीं दी!
फिर तो वही होने लगा जो ऐसी उम्र में होना साधारण बात है!
ये वो ये वो समय था जब पुरानी फ़िल्म में भी सिनेमा हॉल में धड़ल्ले से चला करती थी !
ऐसे में दिलीप कुमार की फ़िल्में वो चुपके चुपके देखने लगे थे ! डरे सहमे से दुपट्टे से मुँह बाँधे साइकिल से थोड़ा जल्दी निकल जाते हैं बीच में उन लोगों ने कुछ ऐसे बग़ीचे और पेड़ देख रखे थे जहाँ इस स्कूल की ड्रेस भी बदली जा सकती थी ताकि देखने वालों को पता नहीं चले कि ये स्कूल से निकले हैं!
उस दिन भी ऐसा ही हुआ था !
गुपचुप तैयारी हो गयी – उस दिन वो मनोज कुमार की ‘क्रान्ति’ देखने जा रहे थे !
‘क्रान्ति’ तो देख ली – पर उस दिन क्या पता था कि उसके जीवन में एक दूसरी ‘क्रांति’ भी हो जाएगी जिससे उसका पूरा जीवन ही बदल जाएगा !
तो हुआ ये था कि ये लोग डरते डरते क़स्बे के पास के शहर रघुनाथपुर चले गए जहाँ फ़िल्म ‘क्रान्ति’ लगी थी।
‘ज़िंदगी की ना टूटे लड़ी – प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी’
गाना रेडियो पर बार बार आता था !
इस बात की पूरी प्रैक्टिस हो गई थी – कैसे सिनेमा शुरू होने के बाद हॉल में घुसना है – बालकनी में एक दम पीछे की सीट पर बैठना है ।
गाँव वाले अगर फ़िल्म देखने आए भी तो ऊपर का टिकट नहीं लेते !
बालकनी का टिकट महँगा होता था – पूरे 3 रुपये 75 पैसे !
नीचे ड्रेस सर्कल का टिकट था – दो रुपये 75 पैसे – और ज़्यादातर गाँव के लोग नीचे ही बैठा करते थे !
“आख़िर ऊपर से भी तो वही सिनेमा दिखेगा जो भी जो नीचे बैठ के दिखने वाला है ! “ – कहते थे सब ।
इसलिए उस दिन सुरेश ने ऊपर के दो टिकट ले लिए थे !
उस दिन डर के मारे प्रभा काँप रही थी ! इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था !
सुरेश के साथ साइकिल पर बैठने की वो आदी हो चुकी थी और उनके बीच लड़का – लड़की होने की चुहल पहले ही शुरू हो चुकी थी ! पर आज प्रभा घबरा रही थी और खुश भी थी !
इसके पहले उन लोगों ने पाँच फिल्म देख डाली थी ! जिसमे देवदास देख कर वह खूब रोई थी !
पहली बार जब प्रभा सुरेश के साथ रघुनाथपुर आयी थी तब तो फिल्म नहीं देखा था – बस बाजार घूम चली गई थी !
पर धीरे धीरे उनकी हिम्मत बढ़ने लगी थी !
इसका एक कारण तो ये था कि उनके गाँव वाले बाज़ार करने पास के कस्बे में ही जाते थे – इतनी दूर कोई नहीं
आता था !
सिनेमा में साथ बैठना उसे बहुत अच्छा लगता था !
पहली बार जब वह सुरेश का हाथ पकड़े बैठी थी तब तो उसे पता भी नहीं चला था कि तीन घंटे इतनी जल्दी कैसे बीत गए ?
अब वे इस बात के आदी हो चुके थे और लापरवाह भी !
पहले दिन तो स्थिति बिलकुल अलग ही थी !
अंधेरे में तीन घंटे उन्हें बैठना था उनकी मंशा तो फ़िल्म देखने की ही थी पर शरीर ने कब अपना अड़चन देना शुरू किया दोनों को पता नहीं चला था ! पता नहीं कब सुरेश और प्रभा के हाथों ने एक दूसरे को पकड़ लिया !
चार सालों से वे साइकिल की सवारी कर रहे थे और वे एक दूसरे के शरीर के मामूली छुअन के आदी भी हो चुके थे! जब से शरीर में विपरीत सेक्स की नज़दीकी चाहनी शुरू की थी – तब उनके पास एक दूसरे का साथ पहले से था ! और उन्हें कुछ सोचने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी!
बहुत सारे गाँव के भाई – बहनों की तरह प्रभा भी सुरेश को ‘भैया’ ही कहती थी ! जिससे किसी को रत्ती भर श़क नहीं था कि उनके बीच एक ऐसे आकर्षण की नींव पड़ चुकी है जो सामाजिक दृष्टि से विस्फोटक थी!
उस दिन प्रभा को सिनेमा हॉल में फ़िल्म दिखाई ही नहीं पड़ी थी ! सुरेश ने उसका हाथ पकड़ रखा था और उसे लग रहा था कि दुनिया में इससे अधिक सुख और क्या हो सकता है !
इंटरवल होते ही सुरेश उठकर चला गया था !
वहाँ उजाले में साथ बैठना ख़तरनाक था। प्रभा अपनी सीट में धंस कर बैठी थी और लाइट बंद होने का इंतज़ार कर रही थी! जब सुरेश अंधेरे में टटोलते हुए वापस आया तब उसके जान में जान आयी ! प्रभा को भी ये बात समझ नहीं आयी थी जब उन दोनों को साथ में इतना आनंद आता है तो फिर इसको छिपाना क्यों पड़ता है !
आज भी ऐसा ही हुआ !
इंटरवल होते ही सुरेश निकल गया ! पर आज का दिन कुछ ठीक नहीं था ! बालकनी से आज वह नीचे चला गया ! दरअसल आज उसका मन मूंगफली खाने का हो आया था ! मूंगफली लेने के पहले वो ड्रेस सर्कल के साथ वाले पेशाब घर में चल गया !
बस यहीं चूक हो गई !
पेशाब करते समय ही सुरेश को मामाजी मिल गए !
मामाजी रघुनाथपुर में ही रहते थे ! उनका गाँव यहाँ से बीस किलोमीटर था ! सुरेश के गाँव से एक दम उलट !
वो भी पहले साइकिल से कॉलेज आया करते थे – पर कॉलेज में पढ़ने के लिए इतनी दूर आने – जाने में टाइम ख़राब होता है ! इसलिए अब उन्होंने एक कमरा किराये पर ले लिया है और यहीं रह कर कंपीटीशन की तैयारी कर रहे हैं ! मामाजी सिविल की तैयारी भी कर रहे थे और अंग्रेजी की मोटी मोटी किताब पढ़ा करते थे !
मामाजी ने सुरेश से पूछा – “अरे आज फ़िल्म देखने आए ? स्कूल नहीं है ?”
सुरेश को तो जैसे साँप सूँघ गया – मामाजी जानते थे प्रभा सुरेश के साथ साइकिल पर स्कूल जाती है।
फिर भी उन्होंने पूछ ही लिया था – “प्रभा भी आयी है क्या ?”
“हाँ प्रभा भी आयी हैं” – सुरेश ने एक दम सहज होने का बेहतरीन अभिनय किया था!
प्रेम अच्छे भले इंसान को अभिनेता बना देता है !
“हाँ, अच्छी फ़िल्म है ! विद्यार्थियों को देश के ‘क्रान्ति’ की कहानी पता होनी चाहिए। देश भक्ति बहुत बड़ी चीज है”- मामाजी ने कहा था!
अब क्या होगा ?
शुक्र है कि उसने बालकनी का टिकट लिया था और मामाजी ने नीचे ड्रेस सर्कल का।
सिनेमा शुरू होने से पहले सुरेश प्रभा के पास वापस आया और उसने बता दिया कि नीचे मामाजी मिले थे!
प्रभा की तो जैसे जान ही निकल गई।
“उन्हें बताया कि हम दोनों आए हैं?” – प्रभा ने पूछा था।
सुरेश ने ‘हाँ’ में सिर हिलाया!
प्रभा पूरे समय है सुरेश का हाथ पकड़ें बैठी रही। उसे लग रहा था कि ये धरती फट जाए और वह सीता मैया की तरह सीधे उसमें समा जाए!
सिनेमा ख़त्म हुआ ! प्रभा साइकिल स्टैंड के बाहर खड़ी रही। सुरेश साइकिल लेने अंदर जा ही रहा था – तब तक मामाजी भी आ गए। प्रभा ने पैर छूकर मामा जी को प्रणाम किया।
मामाजी उम्र में बड़े थे पर रसिक और कला प्रेमी !
रघुनाथपुर में रविवार को सुबह के शो में लगने वाली अंग्रेजी फिल्म भी वो देख के समझ जाते थे ! हाँलाकि रघुनाथपुर में अंग्रेजी ही क्या मलयालम की फिल्में भी लोग पता नहीं कैसे समझ जाते थे !
प्रभा साइकिल स्टैंड के बाहर खड़ी रही।
सुरेश को साइकिल लेकर आने में न जाने कितने साल लग रहे थे।
मामाजी फ़िल्म के बारे में बात कर रहे हैं – ‘मनोज कुमार की फिल्म है ! और सब नामी -गिरामी ऐक्टर हैं – दिलीप कुमार , मनोज कुमार, ससी कपूर , हेमा मालिनी, परवीन बाबी , प्रदीप कुमार , प्रेम चोपड़ा .. ! कहानी फिल्मी है – पर देशभक्ति से सराबोर भी और मनोरंजन , नाच गाना भी ! तुमको क्या अच्छा लगा ?
प्रभा से भी क्या कोई पूछता है ? उसने जमीन की ओर आँख कर के धीरे से बोल दिया – चना जोर गरम !
मामा जी हँस दिए !
“दिलीप कुमार तो अभिनय सम्राट हैं ! उनके अभिनय का जादू देखना है तो पुरानी फिल्म देखो ! ‘गंगा – जमुना’ , ‘लीडर’ , ‘मुगल-ए -आजम’ और डबल रोल वाली ‘राम और श्याम’ देश भक्ति पर बेस्ट फिल्म है मनोज कुमार की ‘शहीद’ और ‘हक़ीक़त’ !”
“अंग्रेजों ने कितने ज़ुल्म ढाए हैं ढाई सौ सालों में – इसका कोई हिसाब नहीं. .!”
तभी सुरेश साइकिल लेकर आ गया –
“सीधे गाँव निकलोगे या कुछ ख़रीदारी वग़ैरह भी करनी है?”
“ नहीं . . गाँव ही निकलना है – गुरुजी ने कहा था कि यह फ़िल्म ज़रूर देखना ! “
सुरेश ने ऐसे ही बोल दिया था !
“आओ चाय पी लो!”
मामा जी की ये खासियत थी कि वो जब भी मिलते चाय- समोसा खिलाए बिना, जाने नहीं देते थे।
पर पहले की बात अलग थी!
पहले तो वह हमेशा अपने स्कूल के आस पास ही मिलते थे. . पर आज सिनेमा घर के बाहर. !
मामाजी ऐसे व्यक्ति थे कि उनसे कुछ कहा नहीं जा सकता था !
बिना समोसा खाए निकलने का प्रश्न ही नहीं उठता था ।
“तीन- ठो समोसा और चाय !”- ऑर्डर हो गया !
रघुनाथपुर की इस दुकान पर समोसा हमेशा गर्म ही मिलता था।
मामाजी ने दोनों को बैठाया और फ़िल्म की चर्चा में लगे रहे।
“आजादी की लड़ाई में बहुत से आम लोगों ने हिस्सा लिया था ! इतिहास में सबका चर्चा थोड़ो ना होता है !
बस बड़े – बड़े लोगों का किस्सा सुनाई पड़ता है -लक्ष्मीबाई का नाम तो सुना है ना ?”
हम सुन भी रहे थे – और ये भी चाह रहे थे कि कब चाय समोसा खत्म हो और निकलें – यहाँ से !
सिनेमा में इतना ज्ञान का बात भी होता है – तब ना सुरेश जानता था ना मैं !
मामा जी फिर गाँव भर की बात करते रहे।
प्रभा को अभी भी आश्चर्य होता है कैसे मामाजी ने उन दोनों के साथ सिनेमा जाने पर कोई बात नहीं की थी ।
साइकिल पर आगे बैठकर प्रभा चल दी !
दोनों के चेहरे पर हवाई उड़ रही थी ।
थोड़ा एकांत पड़ा तो सुरेश ने साइकिल गन्ने के खेत के पास लगा दी- और अपना बस्ता लिए प्रभा गन्ने के खेत में अंदर चली गई ! वापस निकली तो उसने अपना ही स्कूल ड्रेस पहन रखा था !
शाम हो रही थी अंधेरा होने में अभी वक़्त था। आगे बैठी प्रभा ने हैंडल पकड़े हुए सुरेश के हाथ को पकड़ रखा था।
“ज़िंदगी की ना टूटे लड़ी
“प्यार कर ले घड़ी दो घड़ी”
किशोर मन की उथल पुथल में रास्ते का पता ही नहीं चला ।
गाँव पहुँच कर चुपचाप वे अपने घर चले गए थे – जैसे ये रोज की बात हो !
2 महीने के अंदर ही प्रभा शादी हो गई थी !
इसमें कोई आश्चर्य नहीं था ! दोनों जानते थे इस प्रेम का कोई भविष्य नहीं है !
‘क्रान्ति’ की घटना होने के बाद भी प्रभा और सुरेश का स्कूल आना जाना बंद नहीं हुआ था.
बल्कि उनकी दोस्ती और भी गहरी हो गई थी वे दोनों आपस में हँसी ठिठोली भी करते थे और कहते थे –
“अपना प्रेम परमानेंट हो ही नहीं सकता जब तक हम साथ हैं ख़ुश रहेंगे!”
इसी प्रभा की बेटी थी निशा !
जिसकी शादी एक चित्रकार से हुई थी जो मुंबई के कुर्ला इलाक़े में रहता था.
महेश को तो जानते हैं ना आप?
-रवि शेखर
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