सपनों का एक परिंदा
हर पल चला उड़ता,
नई नई गलियों में
मंज़िलें नई ढूंढता.
ऊँची ऊँची इमारतों में…
न मिला आशियाँ,
भूला इस क़दर कि
खो दिया आसमाँ
सपनों का एक परिंदा
हर पल चला उड़ता,
नई नई गलियों में
मंज़िलें नई ढूंढता
अपनी ही मिट्टी वैरी हुई फिर …
अपने ही जल से लगा जलने …
सिखाया सपने देखना जिसने..
तोड़ने लगा उन्हीं के सपने…
सपनों का एक परिंदा
हर पल चला उड़ता,
नई नई गलियों में
मंज़िलें नई ढूंढता
भुला कर अपनो को दिल से
उसे ढूंढी सारी दुनियाँ
पर पाकर भी पा ना सका
चाही थी जो खुशियाँ …
सपनों का एक परिंदा
हर पल चला उड़ता,
नई नई गलियों में
मंज़िलें नई ढूंढता
अंशुमाली झा
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