उसे न तो जानता था, न पहचानता था. सिर्फ़ नाम जानता था, उसकी लिखाई ( हैंडराइटिंग) पहचानता था, पर ख़यालो में उसे अक्सर ढूँढा करता था … बड़ी चाह थी एक बार तो मिलूं उससे … मगर हर बार चूक गया, कभी टाइमिंग दगा दे गयी, तो कभी हिम्मत …. ऐक्चुली हिम्मत भी नहीं .. “लिहाज”… “कुछ तो लिहाज करो” वाला लिहाज … लिहाजा हर बार बात बनते बनते रह गयी !

आपने कभी रहस्य को छू कर देखा है?

मैने देखा है..

जब भी मैं जिल्द पर लिखे उसके नाम को छूता था, तो मुझे लगता था, कि रहस्य ऐसा ही होता होगा …

कई बार बड़े भैया से पूछना चाहा उसके बारे में , पर जुटाते जुटाते भी उतनी हिम्मत जुट नहीं पाई …

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उन दिनों मैं बड़ा हो रहा था, पर मुझ से भी ज़्यादा तेज़ी से भैया बड़े हो रहे थे. बड़े भैया कॉलेज पहुँच गये थे. अचानक जाने कहाँ से उन्हें पढ़ने का शौक लग गया. हमें तो शॉक लगा – अब तक तो अच्छे खासे थे –  फ़ुट्बॉल खेलते थे, गाहे बगाहे इम्प्रेशन जमाने के लिए सिगरेट फूँकते थे. पर अचानक इन्हें ये क्या हो गया ? लाइब्रेरी की किताबें उनकी रैक की शान बढ़ाने लगी. उनकी टेबल पे किरासन तेल वाले टेबल लैम्प के साथ साथ काफ़्का और कामू भी सजने लगे. सीरियस्ली !!! सब कुछ सामान्य नहीं था. कहीं तो कोई बिजली कौंधी थी !  कहीं तो कुछ चटखा था ! नहीं तो ऐसा चस्का, कहीं एक दिन में लगता है . मन गुप्तचर हुआ जा रहा था. उनके कमरे को पूरी तरह छान मारा, लेकिन  छुपी हुई सिगरेट और आर्ट कह कर लड़कियों की नंगी तस्वीरें छापने वाली मैगज़ीनों के अलावा और कुछ न मिला… मेरे अन्दर बैठा जेम्स हेडली चेज़ किसी काम का न निकला … एक भी लीड, आधा सुराग़ भी नहीं मिला. इतनी मेहनत यदि अलजेब्रा पे किया होता न तो भाई एक दो नये फॉर्मुले ज़रूर ईजाद कर देता. बड़ी निराशा हुई, कैसा भाई हूँ!  ठीक से अपने भाई की खबर भी नहीं रख पाया, सच पूछिये तो खबर से ज्यादा, नज़र भी नहीं रख पाया.. “धिक्कार है” वाली फीलिंग ज्यादा थी. कुछ दिनों तक मेरा एंटेना खड़ा रहा – बूस्टर लगा के दिशाएं बदलता रहा. पर आखिरकार बोर हो के, थक के सो गया..

अचानक छुट्टी के एक दिन बड़े भैया ने पूछा, “अरे! आज कल तुम क्या पढ़ रहे हो ? मैंने कहा, “एक बड़ी अच्छी सी किताब ख़रीदी है”. भैया ने पूछा कौन सी किताब, तो छाती चौड़ी कर के कहा “अपने अपने अजनबी”. उन्होंने पूछा, “क्या है इसमें ?”. मेरे मुंह से निकला.. “सेल्मा है , योके है… और ढेर सारा बर्फ है…” कह तो गया जोश में, पर फिर लगा.. “गए काम से… अब तो क्लास लग जायेगी”. किन्तु बड़े भैया ने मुझे अचंभित कर दिया … बस इतना पूछा

“पढ़ लिया ?”,

“नहीं.. अभी तो बाक़ी है…”

“तो जल्दी ख़त्म करो. अगर वक़्त लग रहा है तो मुझे दे दो”

बड़े भैया की ये बात कुछ जमी नहीं. वे मेरी किताब के पीछे क्यों पड़े हैं . मैं नहीं देता किसी को अपनी किताब. लोग पढ़ते नहीं, जान ले लेते हैं किताबों की . किताबों को पढ़ने का भी एक सलीका होता है – नज़ाक़त से, नफासत से. मगर कुछ लोग तो किताबें ऐसे पढ़ते हैं, कि उसकी जान ही ले लेते हैं. लगता है रोज़ उसी पर नहाया धोया बिस्तरा लगाया है. सारा नित्यकर्म उसी पर किया है. लगता है ऐसे ही लोगों के ज़ुल्म से बचाने के लिए उस दौर में किताबों पर ज़िल्द लगाने का रिवाज़ था. रिवाज़ क्या, वो आपके स्टेटस आपके कैरेक्टर का सेंसेक्स था. ज़रा भी इधर उधर हुआ तो गिरा …

बिना जिल्द की नंगी किताबें रखना, नंगे घूमने जैसा था. लोग अच्छी जिल्द लगाने के लिए क्या क्या मशक्कत करते थे. अख़बारों से, अलग अलग पत्रिकाओं से, ख़ास कर सोवियत रूस से आने वाली पत्रिकाओं से सुंदर पन्ने निकाल कर उसका ज़िल्द लगाया करते थे. कई लोग तो जिल्द लगा कर, उसपे अच्छी तस्वीरें भी काट कर लगाया करते थे –मनमोहक सी – सात अजूबों, ऐतिहासिक इमारतों, महापुरुषों, शख्सियतों की . जो फिल्मी एक्टर्स का जिल्द लगाते थे, वो दोस्तों के बीच “कूल” तो होते थे, पर उनके करैक्टर का इंडेक्स बिलकुल गिर जाता था …“ये तो गया काम से” टाइप करार दिया जाता था. भूरे रंग के सरकारी काग़ज़ टाइप की जिल्द लगाने वाले को बोरिंग समझा जाता था . अमीर बच्चो की जिल्द महँगी पत्रिकाओं के होते थे और हम जैसों के धर्मयुग, इलस्ट्रेटेड वीकली, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, संडे जैसी मिडिल क्लास पत्रिकाओं के. सिम्मी जैसी कूल गर्ल्स को यदि किसी मिडिल क्लास कवर को हाथ लगाना पड़ता, तो वो ऐसे हाथ लगाती, जैसे किसी वायरस-बैक्टीरिया को हाथ लगा रही हो. उस ज़माने में यदि सैनीटाइजर का प्रचलन होता, तो यकीनन उसके बाद वे खुद को सैनीटाइज अवश्य करती. खैर!!!  हवा कह लीजिये या पीयर प्रेशर, मगर जिल्द का बड़ा शौक मुझे भी था. हैसियत नहीं थी मेरी, फिर भी पाल लिया था. तो एक पुरानी महँगी मैगज़ीन का जुगाड़ कर मैने भी अपनी किताब पर अपनी पसंद और हैसियत के हिसाब से जिल्द लगाई थी.

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बड़े भैया ने नये आदेश पर मैने किताब जितनी पढ़ी थी, उतने पर ही विराम लगाया और लाकर भैया को किताब दे दी. बड़े भैया के कहने के बाद दो दिन और लेना, उनका निरादर था, उनके बड़प्पन को छोटा करना था. भैया ने पूछा, “पढ़ लिया? कैसी है ?”. मैने कहा, “जितनी पढ़ी, उतनी अच्छी है, आप पढ़ लीजिए, हम बाद में पढ़ लेंगे. हमसे ज्यादा आपका पढना ज़रूरी है.”  बड़े भैया मुस्कुराए.

बड़े भैया को अपनी किताब पढ़ते देखने की इच्छा से हमने उनके कमरे के कई चक्कर लगाये. भैया का कमरा दूसरी मंज़िल पर अकेला था. जहाँ आम तौर पर किसी का आना जाना बहुत ही कम होता था. भैया भी शायद हमारी मनोदशा समझते थे, इसलिए उन्होंने हमारे बार-बार आने-जाने पर कुछ पूछा नहीं और हम बचते रहे. किन्तु बड़े भैया को अपनी किताब पढ़ते देखने की लालसा थी कि शांत हो ही नहीं रही थी. जितनी बार भी गया, तो भैया कुछ और ही पढ़ रहे थे, या फिर बाहर टैरेस पर धुंआ बाँट रहे थे. आखिरकार जब वे अपनी साइकिल पर सवार होकर अपने दोस्तों से मिलने बाहर निकले, तो हम उनके कमरे में पहुँचे, ये देखने के लिए कि हमारी किताब कहाँ रखी है. बड़े भैया की किताबों के साथ अपनी किताब रखी देखकर बड़ा ही आनंद आता था. ऐसा लगता था – जैसे हम भी बड़े भैया की तरह बड़े हो गए. हम भी उनके बराबर हो गए. जानता हूँ बड़ा ही तुच्छ ख़याल है, पर उस उम्र में ख्यालों का कोई फ़िल्टर कहाँ होता.

बड़े भैया के कमरे में पहुँचा तो अपनी किताब दिखी ही नहीं. जब बड़े भैया जा रहे थे तब तो कोई किताब उनके हाथ में नहीं थी. वे तो ऐसे ही बाहर निकले थे. तो मेरी किताब कहाँ है.  फिर से भैया का कमरा छान मारा, मगर मेरी किताब का कहीं नामो निशान नहीं था. मन बड़ा बेचैन हो रहा था. शांति से कहीं बैठा नहीं जा रहा था …

गेट के पास भैया के आने का इंतज़ार करने लगा. रात 8 बजे भैया की सवारी आई . उन्होंने हमें गेट पे खड़े देखा, तो पूछा, “यहाँ क्या कर रहे हो ? एग्जाम की तैयारी नहीं करनी है ? मैंने कहा हाँ करनी तो है मगर… वो मैं… ज़ुबान पर आने से पहले ही शब्दों ने दम तोड़ दिया. भैया ने एक ही नज़र में मुझे नाप लिया था..भैया जब तक स्टैंड पर साइकिल लगाते, तब तक मैं दफा हो गया. पढ़ने बैठ तो गया. पर अब भी बार बार वही रहस्य माथे में कौंध रहा था कि किताब गयी कहाँ.

किसी तरह रात बीती, सुबह से नाश्ता टालता रहा. जब भैया आये नाश्ते के लिए तो हम भी बैठ गए. बड़ी हिम्मत करके मैंने पूछा, “कैसी लगी आपको किताब ? आपने पढ़ना शुरू किया”. उन्होंने मुझे ग़ौर से देखा, मुस्कुराये और बोले, “नहीं”. जी में आया बोल दूँ.  “क्यों ? किताब लिये तो 2 दिन हो गए.. अभी तक पढ़ना भी शुरू नहीं किया ?” जुबां फिर से दगा दे, इससे पहले ही लिहाज ने उसे दबोच लिया. लेकिन बड़े भैया तो बड़े भैया थे, वे मेरे सवाल को ताड़ गये, स्वयं जवाब दे दिया, “अरे उस दिन वो किताब लेकर मैं  गया था, तो मेरी फ्रेंड ने देख लिया, उसको बड़ी अच्छी लगी. उसने ले ली किताब, कहा कि पहले वो पढ़ेगी. पढ़ के दे देगी चार –पांच दिन में. रहस्य दूर हो गया. मन अभी कुछ नया ढूंढ ही रहा था कि भैया का बाउंसर सामने था. “एक बात बताओ.. ये किताब तुम्हें किसने सजेस्ट की ? लड़कियों को तुम्हारी किताब क्यों पसंद आ रही है ?”

“ये कैसा प्रश्न है ? इसका जवाब तो कोई कोचिंग करके भी नहीं दे सकता.” अभी सोच पूरी भी नहीं हुई कि   “किसी लड़की ने तो सजेस्ट नहीं किया ? कोई गर्लफ़्रेंड वग़ैरह तो नहीं है ? जिसने कहा ये किताब पढ़ने” भैया को अच्छी तरह पता था कि मेरी अक्ल कैसे ठिकाने लगेगी.. कैसे मेरे मुँह पे ठेपी (ढक्कन) लग जायेगी.  लग गयी ठेपी. सिर्फ नाश्ते के लिए चल रहा था मेरा मुंह . मगर बड़े भैया ने तो “बात निकली है तो दूर तलक जायेगी” ग़ज़ल को कुछ ज्यादा ही सीरियसली ले लिया था.. अगला प्रश्न सामने था

“एक बात बताओ इतनी बेचैनी क्यों हो रही है तुम्हें अपनी किताब को लेकर. पिछले 2 दिनों से मेरे कमरे के  चक्कर लगा रहे हो… क्या है उस किताब में? तुमने ख़रीदी है या किसी लड़की ने गिफ़्ट की है?”

“नहीं नहीं.. ऐसी कोई बात नहीं.. किताब अच्छी है इसलिए. मुझे लगा था कि आप तो ऐसी पतली किताबें 4-5 घंटे में पढ़ लेते हैं… फौरन दे देंगे वापस …फिर मैं कंटिन्यू कर लूँगा. बस इतना ही.”  भैया हंस पड़े …मौका मिला … अब तो प्लेट उठा कर वहां से खिसकने में ही मेरी भलाई थी …

हफ्ते से अधिक हो गया था. उस किताब का भूत उतर चुका था. हमारे काका जी आज बाज़ार से ट्विन ब्लेड रेजर लेकर आये थे, और उससे शेविंग कैसे की जाए, इसका डेमो दे रहे थे. मैं और मेरे मित्र बड़े गौर से उन्हें देख रहे थे … और हम मन बना रहे थे कि आने वाले एक दो साल में जब हम शेव करेंगे, तो इसी से करेंगे, बाबूजी के पुरातनपंथी ब्लेड वाले रेजर से नहीं … तभी भैया आये और मेरे कंधे पे हाथ रख कर बोले ये लो अपनी किताब … उसे किताब बड़ी अच्छी लगी. थैंक यू बोली. मैंने पलट कर देखा तो ..

“ये  किताब मेरी नहीं है …”

“तुम्हारी ही है. उसने जिल्द बदल दी है”

मैंने अविश्वास से उन्हें देखा .. ये तो वही वाली बात हुई न, कि कोई आपकी गाड़ी ले के जाए और उसे दूसरे रंग में पेंट कर के दे जाए. बड़े भैया मेरे मन की बात समझ गए थे.

“उसकी आदत है.. सबकी जिल्द बदल देती है . पर अच्छी जिल्द लगाती है . बड़ी शिद्दत से”

मुझे गुस्सा आ रहा था. भैया मेरे हैं कि उसके? उसकी तरफदारी क्यों कर रहे हैं? मैं ने बेरुखी से पूछा …

“उसके पापा दफ्तरी (बुक बाइंडर) हैं ? उनकी जिल्द लगाने की दुकान है ?”

“ नहीं उसके पापा बिजनसमैन हैं. और उसे जिल्द का शौक है”

बड़े भैया चले गए थे, मैंने हाथ में पड़ी किताब को देखा. उसने जिल्द लगाकर उसके ऊपर किताब का नाम नीली स्याही में लिख दिया था. मुझे कैसा तो लग रहा था – गुस्सा भी, अचम्भा भी, दुःख भी. मैंने किताब मेज पर रखी और बड़ी बर्बरता से जिल्द फाड़ी और उसके टुकड़े-टुकड़े कर के बाहर कूड़े के ढेर पर फ़ेंक आया. पहली बार मुझे एहसास हुआ कि सिम्मी जैसी कूल गर्ल्स को दूसरों की जिल्द पर हाथ लगा के कैसा लगता होगा. हालांकि जिस जिल्द को मैं ने फाड़ा वो सिम्मी जैसे क्लास की ही थी. पर आज पहली बार मुझे खुद को सैनिटाईज करने का मन कर रहा था.

मेरी किताब अब नंगी थी, पर वो जिल्द मेरे दिमाग में लग गयी थी. पीछा ही नहीं छोड़ रही थी. उसकी हैंड राइटिंग भी नज़रों के सामने थी. मुझसे वो किताब पढ़ी नहीं गयी. मैं उस सच को स्वीकार नहीं कर पाया था. एक दिन भैया जब कमरे में नहीं थे तो मैंने उसकी किताब ढूंढनी शुरू की. भैया की ऐसी कई किताबें थी, जिन पर उसकी हैंड राइटिंग थी. मतलब ये सारी जिल्द उसी ने लगाई है. कई किताबों पे एक नाम भी लिखा था …कावेरी. अच्छा !! तो ये उसकी किताब है. उसका नाम कावेरी है. नाम तो सुन्दर है. … सुन्दर होने से क्या होता है? काम तो उसने बड़ा ही बुरा किया है – मेरी जिल्द बदली है. तभी बड़े भैया की आवाज़ आई , “क्या कर रहे हो तुम यहाँ?” मैंने सकपका के कहा, “ये किताब देख रहा था. मैं पढ़ सकता हूँ?” भैया ने मुझे घूर कर देखा. उन्हें मेरी ये हरकत असामान्य प्रतीत हो रही थी. “ हाँ पढ़ सकते हो … पर जल्दी करना परसों लौटानी है”.

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वो किताब लेकर दो – दो सीढियां फांदता मैं नीचे पहुंचा. खुशी से फूले नहीं समा रहा था. मेरा प्रतिशोध पूरा होने वाला है. मैंने उसकी जिल्द निकाल कर अपनी जिल्द लगा दी और उसपे बड़ी तल्लीनता से पुस्तक का नाम लिख दिया. दो दिन बाद जब बड़े भैया जा रहे थे, तो मैंने उनके बैग में वो किताब डाल दी. भैया को जिल्द की ये हेरा फेरी पता ही नहीं चली.

रात में जब वो लौट कर आये तो मैं जान बूझ कर उनके सामने आया, मगर वो कुछ नहीं बोले. आगे निकल गए. मैं सोच रहा था इतनी मेहनत करने का कोई फायदा ही नहीं हुआ. उसे तो पता ही नहीं चला. उसने गौर ही नहीं किया. मैं अपने आपको कोसता रहा. बेकार में एक कवर भी बर्बाद कर दिया .

नाश्ते की टेबल पर उस दिन बड़े भैया आकर बैठे. कुछ सोच सोच कर मुस्कुरा रहे थे. मैं निपट के निकलना  चाह रहा था कि भैया ने कहा, “सुनो ! तुमने उसके बुक की कवर चेंज कर दी?

“हाँ वो मुझसे थोड़ी गन्दी हो गयी थी, लगा आप डांटेंगे इसलिए.”

“उसे तुम्हारी हैंडराइटिंग अच्छी लगी. उसको इम्प्रेस करने के लिए लिखा था. ऐसे तो बड़े गंदे से लिखते हो”

“नहीं.. आपको इम्प्रेस करने के लिए… ताकि आप डांटें नहीं “

भैया हंस दिए. हौसला बढ़ा. पूछ लिया

“आपकी दोस्त है ?”

“ क्यों? तुम्हें क्या लगता है?”

इस प्रश्न का उत्तर सिर्फ हंसी ही दे सकती थी. तो मैं हंस कर निकल गया…

अगले दिन जब भैया घर में नहीं थे, तो मैं उनके कमरे में गया. वो किताब निकाली. उसकी लिखाई बड़ी अच्छी थी – गोल–गोल, थोड़ी झुकी-झुकी सी. विनम्र होगी. नहीं-नहीं दूसरों की जिल्द बदलने वाली विनम्र नहीं होगी. प्रचंड होगी. नाम कावेरी है तो चंचल होगी…निर्झर सी…खिलखिलाती होगी नदी सी. ये सब सोचते सोचते मैंने उसके नाम को छुआ. ऐसा लगा जैसे किसी ठंडी चीज़ को छू लिया है. रहस्यमय है ये लड़की? कौन है ये लड़की? कहीं उसके घर से भैया के निकलने के बाद, उसने मेरी जिल्द निकाल तो नहीं दी होगी? भैया का दिल रखने के लिए, उसने कुछ भी कह दिया होगा. जांचना पड़ेगा… किन्तु कैसे?

रोज प्लान बनता रहा ..बिगड़ता रहा… कुछ हुआ नहीं … मगर भैया के कमरे में मेरी आवाजाही ज़रूर बढ़ गयी. उन अलग अलग जिल्द को, उसपे टंके उसकी लिखाई को देखता रहता …

आखिरकार एक दिन मैंने भैया से कहा, “मुझे वो अमृता प्रीतम वाली किताब चाहिए थी.”

“क्यों?”

“उसकी एक  कविता मुझे स्कूल की बाल सभा में सुनानी है. सर ने कहा है.”

भैया ने मेरी मासूमियत पढने की कोशिश की. पर उन्हें कुछ ख़ास दिखा नहीं, तो उन्होंने कहा

“वो कावेरी की किताब थी. कल जाऊँगा उसके पास. याद दिला देना लेता आऊंगा …

कभी कभी कल इतना लम्बा होता है कि जल्दी आता ही नहीं. लेकिन डर और ख़ुशी के बीच में वक़्त ऐसे खेल रहा था कि खल कर भी खल नहीं रहा था. ख़ुशी थी कि कल पता चल जाएगा, उसने वो जिल्द निकाली या नहीं. और डर था कि यदि उसने निकाल दी होगी तो जिस उम्मीद को सिरहाने लिए मैं सपने बुन रहा था वो बिखर जाएगा. मगर अब तो मिसाइल निकल चुकी है . कुछ नहीं हो सकता

कल आ गया. वो पल भी आ गया. बड़े भैया उसके घर से लौटे. उन्होंने किताब निकाल कर दी… तो जिल्द वही थी जो मैं ने लगायी थी. ज़मीं पर पैर नहीं पड़ने का असली अर्थ मुझे उसी दिन पता चला … नहीं बुरी नहीं है वो … जिसका नाम कावेरी है, वो बुरी कैसे हो सकती है…

उस जिल्दवाली से, उस लिखाई वाली से एक रिश्ता सा जुड़ गया था … मैं भैया को ढूंढ-ढूंढ कर अपनी किताबें देने लगा. उन पर नयी जिल्द चढ़ने लगी. हर जिल्द जैसे मेरे लिए अमृता शेरगिल, दा विंची की पेंटिंग बन गयी थी. उसे सहेज कर रखने लगा. उसके बारे में और जानने की कोशिश की, पर ज्यादा कुछ पता नहीं चला.. लिहाज-लिहाज खेलता रहा. एक–दो बार अचानक वो घर आयी भी, पर मैं कहीं और था …निराश हो गया … उसकी लिखाई पर हाथ रख कर बड़ी देर तक बैठा रहा. एक दिन भैया ने नोट्स लेकर उसके घर भेजा भी, पर वो नहीं थी. वो पहले दिन से ही रहस्य थी मेरे लिए, रहस्य बनी रही. मैंने अपने पैसे बचा बचा कर ढेर सारी किताबें खरीदी. ज्यादातर पर उसने जिल्द लगायी.

>सिलसिला दो तीन सालों तक चलता रहा. अचानक किताबों में जिल्द लगना बंद हो गया. लगा कहीं भैया की उससे लड़ाई तो नहीं हो गयी? एक दिन हिम्मत जुटा कर बड़े भैया से पूछ ही लिया, “अब वो जिल्द नहीं लगाती आपकी किताबों पर ?” भैया ने पलट कर मुझे देखा. उनकी नज़रों में आज कुछ नहीं था, वो मुझे भांप भी नहीं रही थीं. भैया ने सिगरेट की पैकेट उठायी, टेरेस पर चले गए. सिगरेट जलाई ढेर सारा धुंआ हवा में छोड़ा. मेरी तरफ देखा …

“ नहीं .. कैलिफ़ोर्निया चली गयी ”…

फिर एक सन्नाटा पसर गया .. मैं नीचे उतर आया … काका ट्रिपल ब्लेड रेजर से शेव कैसे करते हैं – उसका डेमो सभी को दे रहे थे …

मन में जिल्दवाली लड़की की किताब से अमृता प्रीतम की दो पंक्तियाँ  गूंज रही थीं ..

“कह दो मुखालिफ़ हवाओं से कह दो

मुहब्बत का ये दिया जलता रहेगा”

अंशुमाली झा